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________________ "सांच को आंच नहीं " जिज्ञासु : आपकी बात तो सही है, अगर आहार के समय जरुरी कार्यवश बोलने के लिए बिना मुंहपत्ति बांधे, केवल हाथ या मुंहपत्ति को आगे रखकर यतना की जा सकती है, तो पुरे दिन में उसी तरह करना ही उचित है । सद्गुरु : दुसरी बात, कोई चुस्त स्थानकवासी श्रावक रास्ते में जा रहें हो एवं उन्हें स्थानकवासी संत-सतियाँ मिल जायें अथवा अचानक कोई स्थानक में गुरुमहाराज को मिलने का प्रयोजन आ जायें तो उस समय कैसे वार्तालाप करेंगे ? जिज्ञासु : वह श्रावक तुरंत हाथ में रुमाल लेकर मुँह के आगे रखते हुए बोलेगा । सद्गुरु: अगर सामायिक बिना भी श्रावक अचानक बोलने के प्रसंग में मुंह के आगे रुमाल रखने का उपयोग रख सकता है तो, सामायिक लेकर प्रवचन आदि सुनते समय तो प्रायः मौन रखना होता है, तो उस समय मुंहपत्ति बांधने की क्या जरुरत है ? वहाँ पर भी जरुरत पडने पर बोलते समय मुंहपत्ति को मुंह के आगे रखकर यतना की जा सकती है । जिज्ञासु : आपश्री हर बात को इतने सचोट तर्क एवं उदाहरणों से समझाते हो कि तुरंत दिल और दिमाग में बैठ जाती है । सद्गुरु : बहुत अच्छा ! आपके जैसे मध्यस्थ सत्यान्वेषी जिज्ञासुओं कोही आगम के गूढ रहस्य सरलता से हृदय में उत्तर जाते है । अब दुसरी बात सुनो ! पुरे दिन मुंहपत्ति बांधकर रखने में एक अपेक्षा सेतो भावहिंसा भी होती है । जिज्ञासु : हें !! यह बात तो कभी सुनी नहीं है, जरा विस्तार से समझाने की कृपा करें । सद्गुरु : (१) जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा । (आचारांग सूत्र) इस सूत्र से आगमकारों ने साधक आत्मा के उपयोग - यानि भावों के आधार पर ही कर्मबंध या निर्जरा का होना सूचित किया है । (२) तथा 'जयं चरे, जयं चिट्ठे, जयं आसे, जयं सए,' 112
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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