SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तर : साधर्मी भक्ति में हिंसा होते हुए भी लाभ ज्यादा है तो मूर्तिपूजामें नहीं माननेवाले संत भी मानते ही हैं । उसका उपदेश देते है, उनके श्रावक करते है। तो फिर स्वय क्यों नही करते ? इस प्रश्न का उत्तर आप क्या देंगे ? ऐसा प्रश्न अनेक धर्मकार्यो के लिये किया जा सकता है, क्योंकि ऐसे अनेक धर्मकार्य है, जो श्रावक करते हैं परंतु साधु संत नहीं करते। इसका उत्तर यही देना पडेगा कि श्रावक अपने लिये भोजन बनाने की हिंसा करता ही है अतः उसे साधर्मी भक्ति करने में लाभ ज्यादा है। परंतु साधु भगवंत अपने लिये भोजन नहीं बनाते अतः साधर्मी (श्रावको) के लिये भी उन्हें नही बनाना है। इसी तरह श्रावक अपने जीवन के लिये जल आदि की हिंसा करता ही है तो उससे पूजा करने लाभ भी ज्यादा है। परंतु साधु अपने लिये जल आदि की हिंसा करते अतः उन्हें परमात्माकी पूजा के लिये भी नहीं करनी हैं। प्रश्न : श्रावक अपने जीवननिर्वाह के लिये तो हिंसा करता ही है। उसका पाप तो लगता ही है , अब पूजा के लिये भी हिंसा करके ज्यादा पाप क्यों बाँधना? उत्तर : यह प्रश्न सभी धर्मक्रिया - गुरुवंदन -प्रवचन श्रवण- स्थानक निर्माण - साधर्मी भोज के लिये किया जा सकता है। उसका क्या जवाब है ? दूसरी बात यह है कि घर चलाने के लिये जो खर्च होता है, वह खर्च कहा जाता है, किन्तु दुकान चलाने के लिये जो खर्च होता है, उसे खर्च नहीं कहते, Investment कहते है। क्योंकि उससे कई गुना वापस मिलता है। इसी तरह जीवननिर्वाह के लिये होती हुई हिंसा पाप कहलाती, परंतु पूजा भक्ति के लिये होती हुई हिंसा पाप नहीं कहलाती, धर्म ही कहलाती है क्योंकि उससे अनेक लाभ होते हैं। प्रश्न : मान लिया कि प्रतिमा कि पूजा से भक्तिभाव आदि का लाभ होता हो, तो हिंसा में कोई दोष नहीं। किन्तु पत्थरकी प्रतिमा को परमात्मा कह देने से कोई गुण की प्राप्ती कैसे हो सकती है ? पत्थरकी गाय कभी दूध देती है क्या ? । उत्तर : यदि यह प्रश्न कोई करे कि गाय के नाम का जाप करने से दूध नहीं मिलता तो :०००००००००००००००००००००००००००००8888888888888885608:3036060
SR No.006135
Book TitleKya Jinpuja Karna Paap Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhayshekharsuri
PublisherSambhavnath Jain Yuvak Mandal
Publication Year
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy