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अनेक हास्यास्पद एवं असत्यपूर्ण बातें लिखी हैं। इन बेमेल बातों का कुछ दिग्दर्शन यहां प्रस्तुत है। ____ यद्यपि अत्यधिक आनन्द की बात यह है कि आज अधिकांश हमारे प्यारे स्थानकवासी बन्धुगण, श्रावक-श्राविकायें, जिनमन्दिर, जिनमूर्ति एवं मूर्ति-पूजा का समर्थन कर जिन-पूजा, तीर्थयात्रा, जिनेश्वरों की कल्याणक भूमियों की पावन स्पर्शता करना इत्यादि आत्म-कल्याणकारी आगमिक धार्मिक प्रवृत्तियों द्वारा अपना जन्म सफल कर रहे हैं। - हमारे प्यारे इन स्थानकवासी भाइयों को इतना स्पष्ट ध्यान में आ ही गया है कि जब स्थानकवासी सन्त स्वयं भी आवश्यक एवं उपयोगी समझकर अपने गुरुओं के समाधि-मन्दिर, पगल्या, छत्री, चबूतरा आदिस्मारक बनवाने लगगये हैं, फिर जिन-मन्दिर, जिनमूर्ति-पूजा, तीर्थंकरों की कल्याणक भूमि की स्पर्शना तथा तीर्थयात्रा के आत्म-कल्याणकारी मार्ग से दूर रहने का हमें क्यों सिखा रहे हैं? ____ और हमारे प्यारे पापभीरू, सम्यग्दृष्टि, सत्यप्रिय स्थानकवासी बन्धुओं को यह ज्ञान भी भली-भांति होचुका है कि शंकर, गणपति, हनुमान, सांईबाबा, भवानी माँ, सन्तोषीमाँआदिको मानने-पूजने से तो वीतराग तीर्थकर अरिहन्त को मानना-पूजना और तीर्थ यात्रा करना यह सर्वोच्च आत्मोन्नति का मार्ग है। ... रही बात कतिपय उन्मार्गगामी, असत्यवादी, पापसे नहीं डरने वाले स्थानकवासी सन्त और श्रावकों की, कि जो जानने-समझने पर भी स्वयं असत्य के मार्ग पर चलते हैं और भोलेजनों को असत्य मार्ग पर चला रहे हैं।
सम्पादकश्री का पंथ ममत्व देखिये
स्थानकवासीसन्त के उन्मार्गके विषय में श्रीनेमिचन्दजी बांठिया लिखते हैं कि + + + + यदि स्थानकवासी पन्थ के सन्त वेष को
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