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5 मार्च 1996 के कुल 6 अंक में उन्होंने मूर्तिपूजा, मूर्ति एवं जिन-मंदिर के विषय में अनेक ऊटपटांग एवं परस्पर विरोध की बातें लिखी हैं, जिसका उत्तर इस लेख में दिया है, जो अत्यन्त मननीय है।
। मूर्ति-पूजा का सबसे बड़ा समर्थन तो आज स्थानकवासी सन्त अपने समाधि-मन्दिर, गुरु-मूर्तियों की प्रतिष्ठा, पगल्या (धरण) स्मृति-मन्दिर आदि बनाकर कर ही रहे हैं। फिर परम उपकारी तीर्थंकर भगवान के मन्दिर और मूर्ति का ही विरोध वे क्यों करते हैं?
सभी सत्यप्रिय और आत्महितचिन्तक व्यक्ति को जिनमूर्ति का विरोध छोड़कर, इनकी उपासना में लग जाना चाहिए।)
- ब्यावर से प्रकाशित होती 'सम्यग्दर्शन' पत्रिका के सम्पादक श्री नेमिचन्दजी बांठिया (B.A., L.L-B.) ने 'सम्यग्दर्शन' (5 अक्टूबर, 1995 से 5 मार्च, 1996 तक के कुल 6 अंकों) में : जिन-मूर्ति, जिन-मन्दिर और मूर्ति-समर्थकों के प्रति जहर उगला है। बांठिया जी ने चैत्यवासियों का बहाना लेकर मूर्ति-समर्थक प्राचीन महान जैनाचार्यों को धूर्त, मठाधीश, शिथिलाचारी कहे हैं,
यह अत्यन्त निन्दनीय हैं। . इस लेख में हमने 'सम्यग्दर्शन' पत्रिका में (कुल 6
अंकों में) छपा सम्पादक श्री नेमिचन्दजी बांठिया का लेख 'स्थानकवासी नहीं, मूर्ति-पूजक धोखा खा रहे हैं' का सप्रमाण, सत्य-तथ्यपूर्ण उत्तर दिया है। यद्यपि इन 6 अंकों को पढ़ने से ही पता चल जाता है कि सम्पादकश्री भले ही वकालत पढ़े हों, जैनागम एवं निर्ग्रन्थ प्रवचन के विषय में वे अब कई भी नहीं जानते हैं। सम्पादकश्री ने सम्यग्दर्शन में परस्पर विरुद्ध,
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