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'स्थानक बनवाना यह पाप कार्य है, अधर्म है, स्थानक बनाने वाला पापी - हिंसक होता है और नरकादि दुर्गति में भटकता है। इसलिए स्थानक बनाना नहीं चाहिए।'
आगे आप लिखते हैं कि 'गौरवमयी स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए निर्माण कार्य की प्रेरणा स्थानकवासी संत देने लगे हैं।' कितनी भोली बात' लिखी है। अरे भाई ! गौरवमयी स्मृति अहिंसा, संयम और तप से सुरक्षित रहेगी या स्मारक से? लगता है कि मनोहरलालजी के विवेक द्वार बन्द हो गये हैं, जिसके कारण मन में जो भी कुछ आया वह लिख दिया है।
स्थानकवासी मान्यता बेबुनियाद है
यह स्थानकमार्गी परम्परा प्रभुवीर के मार्ग से इतनी भटक गयी है कि '..... कोई भी स्थानकवासी सन्त या श्रावक जी चाहे वैसा मनमाना लिखते या करते रहते हैं । '
जैसे सम्पादक श्री नेमिचन्दजी बांठिया लिखते हैं कि ...... (यद्यपि स्थानकवासी सन्त गुरु मन्दिर, पगल्या आदि का निर्माण करवाते है फिर भी ) मूर्ति-पूजक बन्धुओं की तरह उन समाधि स्थलों एवं मूर्तियों को (स्थानकवासी सन्त) वन्दनीय, पूजनीय और आत्मकल्याण के पावन साधन तो कम-से-कम वे नहीं मानते हैं। इतना अन्तर तो इन स्थानकवासी भेषधारियों एवं मूर्ति-पूजक बन्धुओं में है ही । पृ. 149, दि. 5-3-96...'
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जब कि मनोहरलाल जी जैन कहते हैं कि 'स्थानकवासी सन्त श्रावकों को अपना सामाजिक दायित्व का बोध कराने तथा गौरवमयी स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए निर्माण कार्य की प्रेरणा देने लग गये हैं । ( जीत की भेरी पृ. 5, दि. 16-11-95 ) .... जबकि घीसूलालजी पीतलिया, 'जैनागमों की अर्थ गवेषणा' विभाग में (सम्यग्दर्शन पृ 165, दि. 5-9-96) लिखते हैं कि (16)