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गुरुवाणी-३
गुणानुराग से निकाल देना चाहिए। और सिर्फ दूसरों के गुणों को ही देखना चाहिये
और दोषों की उपेक्षा करनी चाहिये। दूसरे चरण में स्वयं अन्तर निरीक्षण करें कि मेरे में क्या-क्या अवगुण है? देखने पर ही ध्यान में आता है कि मैं कहाँ भूला हूँ और तीसरे चरण में कोई हमारे दोष बताएं तो सहर्ष स्वीकार करना चाहिए तभी हम सुधर सकते हैं। हम दो हमारे दो
जीवन में गुणानुराग का पोषण करने से गुण स्वतः ही आकर उपस्थित हो जाते है। हम सबको पराया समझकर बैठे हैं, इसीलिए हम दु:खी हैं। मनुष्य का हृदय बहुत संकुचित बन गया है। 'हम दो और हमारे दो' इसमें माता-पिता को भी कोई स्थान नहीं है। माँ-बाप कहाँ जाएंगे? वृद्धाश्रम में अथवा माण्डवी के आश्रम में? क्या वृद्धाश्रम में जाने के लिए ही तुम्हें जन्म दिया है। कितनी-कितनी बाधाएं उठाकर मानता मानकर तुमको इस पृथ्वी पर उतारा है.... अनेक मनुष्य ऐसा कहते हुए आते हैं - साहेब, मेरे पुत्र का दिमाग बराबर नहीं है, इसको अच्छी तरह से ज्ञान चढ़े.... वह सुखी हो इस प्रकार का इस पर वासक्षेप डालें। किन्तु कोई भी ऐसा नहीं कहता - साहेब, मेरे पिता स्वस्थ नहीं है, वे स्वस्थ रहें, वैसा वासक्षेप डालिए! कितना संकुचित मानस है। इस मानस को बदलना होगा। सब लोग मेरे हैं, जब इस प्रकार का व्यवहार जीवन में आएगा, तभी तुम्हारे जीवन में रही हुई ईर्ष्या और असूया दूर होगी। सन्त और वेश्या का दृष्टान्त
किसी गाँव में एक सन्त पुरुष रहते थे। उनकी कुटिया के सामने ही किसी वेश्या का घर था। वह वेश्या प्रतिदिन सन्त पुरुष के दर्शन से स्वयं के कुल को पवित्र करती। वह अहोभाव से सन्त के गुणों का कीर्तन करती। उसका जीवन वेश्या का था, किन्तु विचार धारा सन्त जैसी थी। स्वयं के आचरण की हमेशा निन्दा करती थी। मैं कैसी मन्दभागी हूँ !