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गुणानुराग
गुरुवाणी-३ प्रतिदिन अनेक भांडपुरुषों को मुझे सन्तुष्ट करना पड़ता है, मेरी देह को नीलाम करना पड़ता है। निरन्तर पापमय प्रवृत्ति में डूबी रहती हूँ, जबकि कुटीर में रहे हुए सन्तपुरुष वेश्या की निन्दा किया करते थे। कैसी नीच स्त्री है, कुछ लाज शर्म नहीं, सुबह उठने के साथ ही पुरुष के साथ क्रीड़ा करती रहती है। कैसा निन्दनीय जीवन है ! मैं कैसा सद्भागी हूँ। प्रातः उठने के साथ ही भगवान के भजन में लीन रहता हूँ। मैं कोई पाप कार्य नहीं करता। इस प्रकार स्वयं की प्रशंसा और परनिन्दा में उसका सारा दिन व्यतीत हो जाता। उस सन्तपुरुष से जो कोई भी मिलने आता उसके सामने उस वेश्या के दोषों का वर्णन किया करता था। उसका जीवन संत का अवश्य था किन्तु विचारधारा निम्न स्तर की थी। समय बीतता गया। संयोग ऐसा बना कि सन्त और वेश्या एक ही दिन मर गये। सन्त के लिए पालकी और वेश्या के लिए अर्थी तैयार हुई। सन्त की पालकी को फूलों से सजाया गया, जबकि वेश्या की अर्थी को कोई उठाने वाला नहीं था। जीव लेने के लिए आए हुए यमदूत योगी के जीव को नरक की ओर ले जाते हैं तथा वेश्या के जीव को स्वर्ग की ओर। यह अटपटा व्यवहार देखकर योगी का जीव बोल उठता है -- अरे, लगता है तुम भूल गये हो, नरक में जाने योग्य तो इस वेश्या का जीव है। मैं तो योगी था। यमदूत कहते हैं - भाई! तू शरीर से तो संन्यासी था किन्तु तेरे दिल में क्या था? तू गुणद्वेषी था, परनिन्दक था। जबकि यह वेश्या तो तेरे संन्यासी जीवन में जो शान्ति और अपूर्व आनन्द था उसे पाने के लिए रात-दिन विचारों में खोई हुई रहती थी ! जब तू रात्रि में भजन गाता और प्रात:काल में मधुर मङ्गल श्लोक बोलता, उस समय वेश्या प्रभुमय बन जाती थी। भावविभोर बनकर स्वयं के कुकर्मों पर आँसू बहाती थी। तूं संन्यासी होने के अहंकार को पुष्ट करने के लिए सबकुछ करता था। जबकि दूसरी ओर वेश्या स्वयं के पापमय जीवन को पश्चात्ताप से विनम्र बनाती जाती थी। उसके चित्त में न अहंकार था, न वासना थी, बल्कि मृत्यु के समय उसका मन भगवान् की प्रार्थना में ही लीन था। सन्यासी मौन हो गया।