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________________ गुरुवाणी-३ · गुणानुराग कहने का तात्पर्य यह है कि गुणानुराग से कलंकित जीवन जीने वाली वेश्या होने पर भी तीर गई और संन्यासी साधु जीवन को जीता हुआ भी डूब गया। __चारों तरफ दोषों से भरे हुए जगत में गुणों का दर्शन हो यह आश्चर्य की बात है। इसमें भी गुणों का भण्डार हो तो महान आश्चर्यजनक है। जीवन में एक भी गुण हो तो सद्भाग्य है। इससे आगे बढ़कर कहें कि जहाँ केवल दोष ही है, वहाँ कम दोष वाले हों तो भी अच्छा है। ऐसा महापुरुष कहते हैं कि जगत तो निर्गुणियों से भरा हुआ है, उसकी उपेक्षा करो। जीव तीन प्रकार के विचार ग्रस्त - पाँचों इन्द्रियों के विषयों की विचारणाओं में ही जिसका मन रमण करता हो। विचार त्रस्त - व्यक्तियों के प्रति कषाय भाव से जिसका मन त्रस्त रहता हो वह। विचार मस्त - विषय कषाय से ऊपर उठकर जिसका मन शुभ विचारों में रमण करता हो। - शुभ भाव/शुभ प्रवृत्ति में रहने वाले का कल्याण निश्चित है। - दान करता है, उसका पुण्य अखूट रहता है। - शील-पालन करता है, उसका सुख अक्षय रहता है। - तप करता है, उसको कभी दुःख नहीं होता। - भाव से नवकार गिनता है, उसको मोक्ष मिलता ही है। .
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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