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________________ ७६ गुणानुराग गुरुवाणी-३ भव भी सुधर जाएंगे और बिगड़ गए तो अनन्त जन्म बिगड़ जाएंगे। हमारी एक इन्द्रिय भी अन्दर की ओर झुकी हुई नहीं है। आनन्दघनजी महाराज अजितनाथ भगवान के स्तवन में कहते हैं "चरम नयण करी मारग जोवतां रे, भूल्यो सयल संसार, जेण नयण मारग जोईये रे, नयण ते दिव्य विचार...., पंथड़ो निहालुं रे बीजा जिन तणो.... रे,' अर्थात् मैं चर्म चक्षुओं से देख रहा हूँ इसीलिए संसार में भटक रहा हूँ। जिन नेत्रों के द्वारा मार्ग देख सकते हैं, वे दिव्य चक्षु है। हमारे दिव्य चक्षु खुल जाए तभी हमको हमारे अवगुण दृष्टि में आते हैं। गीता में कृष्ण महाराजा अर्जुन को कहते हैं - "हे अर्जुन! दिव्यं ददामि ते चक्षुः।" अर्थात् हे अर्जुन! मैं तुम्हें दिव्य चक्षु प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा देखो। गुणानुराग का तीसरा चरण आँख कमजोर हो तो पास में पड़ी हुई वस्तु भी हम नहीं देख पाते हैं, यह सम्भव है। उसी प्रकार हमारी आन्तरीक दृष्टि यदि कमजोर हो तो हम अपने दोष भी नहीं देख पाते हैं, यह भी सम्भव है किन्तु यदि दूसरा व्यक्ति हमारे दोषों को बतलाता है तो हमें आनन्दपूर्वक अपनी भूल को स्वीकार करना चाहिए। यह तीसरा चरण है। जिस प्रकार कमजोर आँखों वाले मनुष्य मार्ग में सन्मुख आती हुई गाय से टकरा न जाए इसलिए यदि कोई व्यक्ति उसका बचाव करे तो स्वयं को खुशी होगी या नहीं? अच्छा हुआ तुमने मुझे बचा लिया, नहीं तो मैं टकरा कर गिर जाता। इसी प्रकार हमें कोई अपनी भूल को बताएं तो उसे आनन्दपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। एक के बाद एक पगथियाँ चढ़ेंगे तो ही आगे बढ़ सकते हैं। तभी शिखर पर पहुँच सकते हैं। प्रथम चरण में हमारे दिमाग में जो भ्रांति भरी हुई है कि मैं तो बराबर हूँ, मेरे में किसी प्रकार का अवगुण नहीं है, मैं तो गुण का भण्डार हूँ। इस भ्रम को दिमाग
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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