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गुरुवाणी - ३ भगवान के साथ भी माया
गुणानुराग
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स्वामी रामतीर्थ कहते थे कि जनता भगवान के पास जाती है और हाथ ऊँचा कर-कर के बेसुरी राग को खेंचते हुए कहती हैं - भगवान मैं अवगुणों का भण्डार हूँ, किन्तु वास्तव में वे भगवान को ठगते हैं। वह यदि बाहर निकलता है और कोई व्यक्ति उसके अवगुणों की तरफ संकेत करता है, तो मानो विस्फोट हो गया। जगत में सच कहने वाले बहुत कम हैं और उस सत्य को सुनने वाले तो उससे भी कम हैं। सच्ची बात सहन नहीं होती । एक सुभाषित आता है अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः । " अर्थात् अप्रिय होने पर भी हितकारी हो ऐसा कहने वाला और उसको सुनने वाला भी दुर्लभ है। मन्दिर में जाना हो तो थोड़ी तो सीढ़िया चढ़नी ही पड़ती है, उसी प्रकार जीवन में भी ये सब सीढ़ियाँ हैं । भगवान क्या कुछ उत्तर देने वाले हैं? जो उनके पास में तुम ऊँचे स्वरों में रागों को खेंच-खेंचकर अपने अवगुणों का वर्णन करते हो । परन्तु, अवगुणों से भरा हुआ हूँ, इसीलिए संसार में भटक रहा हूँ, ऐसा समझने वाले बहुत कम होते हैं । ९,९९९ व्यक्ति तो रोटी, कपड़ा और मकान के झंझट में ही पड़े हुए हैं। गुण और अवगुण को जानने में उनका कोई रस नहीं है ।
पहले शस्त्र विराम
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जगत के अवगुणों को देखना बहुत सरल है, किन्तु स्वयं के अवगुणों को देखना बहुत ही कठिन है। ब्रह्मा ने पांचों इन्द्रियों का प्रवाह बाहर रखा है। तुम देखोगे तो आँखें बाहर के पदार्थों को ही देखती है, कान बाहर के शब्दों को ही सुनते हैं । भगवान् के समक्ष हम पाँचों इन्द्रिय रूपी शस्त्रों द्वारा लड़ाई करने लगे हैं । आँख, कान, नाक और जीभ का अधिक से अधिक हम दुरुपयोग कर रहे हैं। लड़ाई बन्द करनी हो तो पहले शस्त्र विराम करना पड़ेगा अर्थात् पहले इन्द्रियों को वश में करना पड़ेगा। यह जो मिले हुए पाँच-पचास वर्ष सुधर गये तो भविष्य के अनन्त