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गुणानुराग
गुरुवाणी-३ हुआ नीचे गिर रहा था। बन्दर पानी के झरने के पास पहुँचा। बहुत प्यासा था इसलिए तत्काल ही पानी में मुख डाला। वास्तव में वह पानी का नहीं शीलाजीत के रस का झरना था। वह रस अत्यन्त ही चिकना था, इस कारण उस बन्दर का मुख चिपक गया। मुख को रस से अलग करने के लिए प्रयत्न करने लगा। दीर्घदर्शी नहीं था अतः दोनों हाथों की मदद ली, तो दोनों हाथ भी चिपक गये। उसने अनेक प्रयत्न किए किन्तु वे सब व्यर्थ गये और तड़फड़ाते हुए वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। लोभ मेरे पाप से...!
संसार की आज यही दशा है न! मनुष्य को लगता है, यहाँ से इकट्ठा करूँ या वहाँ से इकट्ठा करूँ....। चारों तरफ मुँह मारता है। मुँह चिपक जाए तो हाथ का उपयोग करने लगता है और बाद में उस बन्दर के समान उसमें धंसता/डूबता चला जाता है। आज मनुष्य शेयर बाजार के पीछे पागल बना हुआ दिखाई देता है न! वह चाहे पान-गल्ला वाला हो अथवा नाई हो अथवा मोची हो सब पर शेयर का पागलपन छाया हुआ है। रातो-रात करोड़पति बनना चाहते हैं। अतः उसमें अपनी सारी पूंजी झोंक देते हैं। पहले बन्दर की तरह विचार किए बिना ही सीधा मुँह डाला
और फिर वह बन्दर तड़फड़ा कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसी प्रकार आज शेर से बकरी बन जाता है और कोई-कोई तो जीवन का अन्त भी कर लेता है। महापुरुष कहते हैं कि इन सबको छोड़ो। मायाजाल में फंसने पर बाहर निकलना सम्भव नहीं होगा।
हमारा क्रिया की तरफ इतना अधिक झुकाव है उतना ही झुकाव गुण की तरफ लाने का है। तपश्चर्या की हो तो वासक्षेप डलवाने के लिए बहुत लोग आते हैं किन्तु कोई भी ऐसा कहने वाला नहीं आता है कि साहेब! मुझमें अनेक दुर्गुण हैं वे दूर हों और मेरे में सद्गुणों का वास हो ऐसा वासक्षेप प्रदान करो।