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________________ ६८ गुणानुराग गुरुवाणी-३ कईयों का उसने खून कर दिया था। लूटना उसका व्यवसाय था। साधु प्रत्येक वस्तु को ग्रहण करें या रखें उस समय रजोहरण से उस स्थान को साफ करते थे। पल्लीपति साधु की प्रतिदिन की दिनचर्या को देखा करता था। उसने साधु से पूछा - महाराज! यह क्या करते हो? यह क्या है? इससे हर समय इधर-उधर की सफाई क्यों करते हो? महाराज कहते हैं - भाई ! हमारे कारण कोई जीव मर न जाए उसकी रक्षा के लिए हम यह रजोहरण रखते हैं। निर्दोष जीवों को क्यों मारा जाए? हम तो दोषी व्यक्ति का भी सर्वदा कल्याण ही चाहते हैं। साधु के इन वाक्यों को सुनते ही पल्लीपति की आंखों पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा हट गया। स्वयं के भीतर झांकने लगा। अ र र....! मैं कैसा पापी हूँ। मैंने निर्दोष होने पर भी छोटे नहीं बड़े-बड़े (पंचेन्द्रिय) जीवों की हत्या की है। स्वयं पापों का प्रायश्चित् करने लगा। थोड़े दिनों के सम्पर्क से ही खूखार डाकू भी तुरन्त ही नरम हो गया। स्वयं के धनुष-तीर आदि को लेकर फेंक दिये और साधु के सामने प्रतिज्ञा की - हे भगवन् ! आज से मैं समस्त पाप प्रवृत्तियों का त्याग करता हूँ। मैं अपनी मेहनत की कमाई से अपना गुजारा चलाऊँगा। निरपराधी जीवों की हिंसा नहीं करूँगा। गुणानुराग से वह सुधर गया। साधुओं ने कोई उपदेश नहीं दिया, किन्तु उनके जीवन का आचारव्यवहार देखकर उनकी गुणों के प्रति वह आकर्षित हुआ। किसी की भी पकड़ में नहीं आने वाला और पुलिस से भी नहीं डरने वाला एक ही गुण के कारण पाप से डरकर बिना उपदेश ही तिर गया। यह सत्य घटना है। . जगत् में गुणानुरागी जीव अत्यल्प हैं । उससे भी कम गुणी हैं और उससे भी कम गुणियों के प्रति गुणानुराग करने वाले होते हैं। कदाचित् गुणवान हो तो भी ईर्ष्या से दूसरों के कार्यों की प्रशंसा नहीं कर सकता। गुणी और गुणानुरागी हों ऐसे व्यक्ति तो हजारों में से कुछ ही नजर आते हैं। शास्त्रों में शाल और महाशाल की कथा आती है, जो गुणी और गुणानुरागी हैं।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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