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गुरुवाणी-३
गुणानुरागी तो जिस प्रकार माता की पूजा की जाती है, उसी प्रकार धन की पूजा की जाती है। उस धन का वह रक्षण ही करता है, उसको उपयोग में नहीं लेता है। दूसरी लक्ष्मी स्त्री जैसी होती है, वह लक्ष्मी जब घर में आती है, तब जिस प्रकार स्वयं के भोग के लिए स्त्री होती है, वह दूसरों को भोग के लिए नहीं दी जाती। उसी प्रकार इस स्त्री रूपी लक्ष्मी का उपभोग स्वयं के लिए ही करता है, उसमें से दूसरे को एक पाई भी नहीं देता है। तीसरी लक्ष्मी का स्वरूप दासी जैसा होता है। जिस प्रकार राजा और सेठों के यहाँ घर में दासी होती है, तो उसे रखना हो तो रखते हैं और नहीं तो दूसरों को दे भी देते हैं! इसी प्रकार दासी रूपी लक्ष्मी घर में आती है, तो स्वयं उसका उपभोग करता है और दूसरे को देना हो तो दे भी देता है। स्वयं की पत्नी को नहीं दिया जाता
और दासी को दिया जाता है। यह तीसरे प्रकार की लक्ष्मी ही योग्य है। "लक्ष्मी का भोग नहीं, त्याग करो, उपभोग नहीं किन्तु उपयोग करो"
स्वामी रामतीर्थ की पत्नी को खबर लगी कि स्वामी वेतन का अधिकांश भाग दूसरों को दे देते हैं इसीलिए उसने स्वामी जी से प्रार्थना की कि इतना कमाते हैं, तो मुझे क्यों नहीं देते। मेरे इन कपड़ों को देखकर लोग मेरी निन्दा करते हैं। अतः वेतन का हिस्सा मुझे दें तो मैं अच्छे वस्त्रआभूषण खरीद लाऊं और उनको पहनकर अच्छे घर की कहलाऊं। स्वामीजी ने उत्तर दिया -- दुनिया में प्रशंसा पाने के लिए अथवा उनकी दृष्टि को आकर्षित करने के लिए हमने जन्म नहीं लिया है, किन्तु अच्छे काम करके भगवान की दृष्टि में हम अच्छे दिखाई दें तभी हमारे इस जन्म का महत्त्व है। तुम भविष्य में भूलकर भी इस प्रकार की बात मत करना। सम्मान गुणों का होता है, व्यक्ति अथवा कपड़ों का नहीं। गुणों को प्रकटाने के लिए अनेक चाबियाँ हैं, उन चाबियों का विश्लेषण आगे करेंगे।
संसारियों का जीवन जीवों की यातना पर है जबकि संयमियों का जीवन जीवों की यतना पर है।