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गुणानुरागी
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गुरुवाणी - ३ उत्तम गुण गावतां, गुण आवे निज अङ्ग' अर्थात् परमात्मा के उत्तम गुणों का गान करने से वे गुण हमारे में भी आते है । जिसका उत्तम गुणों पर अनुराग होगा, वह तीर्थंकर पदवी भी प्राप्त करता हैं । उसका सौभाग्य नामकर्म अधिक ज्वलंत बनता है। इसी कारण लोगों में उसका वचन मान्य होता है ।
गुरु दत्तात्रेय
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गुरु दत्तात्रेय के २४ गुरु थे। किसी के भी पास से उनको कुछ भी सीखने को मिलता था, उसको वे स्वयं के गुरु बना लेते थे । चाहे कुत्ता हो या बन्दर । गुणानुरागी मनुष्य सर्वदा गुणों की ही खोज करता रहता है। दोषों से भरे हुए व्यक्ति में भी उसे केवल गुण ही नजर आते हैं। गुणों पर अनुराग से उसका ऐसा पुण्य बन्ध जाता है कि विश्व के बड़े-बड़े व्यक्ति और उच्च वस्तुएं उसकी तरफ आकर्षित होकर स्वत: ही चली आती है। दान, शील और तप के आचरण में किसी न किसी प्रकार का भोग देना ही पड़ता है। जबकि गुण का अनुरागी बनने में किसी प्रकार का भोग / त्याग नहीं करना पड़ता है ।
सबसे अधिक चतुर - सोक्रेटिस
ग्रीस देश में एक देवी अमुक दिन प्रगट होती थी । किसी ओझा के दिल में प्रवेश करके वह सबको सत्य उत्तर प्रदान करती थी । सबको कुतूहल होता कि हमारे देश में सबसे समझदार मनुष्य कौन है ? देवी को पूछा - देवी ने उत्तर दिया- सोक्रेटिस है । सोक्रेटिस देखने में बड़ा कुरूप था। किसी व्यक्ति ने सोक्रेटिस से कहा- देवी ने तुमको सबसे अधिक समझदार कहा है । सोक्रेटिस ने उत्तर दिया- तुमने बराबर नहीं सुना होगा.... क्योंकि मैं तो कुछ जानता ही नहीं, अतः देवी से दोबारा पूछो। देवी से फिर पूछा गया। देवी ने कहा- जो कोई ऐसा कहता हो कि मैं कुछ नहीं जानता, वह सब कुछ जानता है । सब कुछ जानने के लिए जाओगे तो वहीं फंस जाओगे । सद्गुणधारक व्यक्ति को स्वयं की प्रसिद्धि के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता । सद्गुण ही उसकी कीर्ति को फैला