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________________ गुणानुरागी गुरुवाणी-३ सामने वाले व्यक्ति के हृदय में स्थान बनाने के लिए गुणों के प्रति राग यह पहला द्वार है। सहजता से सच्चे मनुष्य का दिल जीता जा सकता है। विश्व में दोनों प्रकार के मनुष्य होते हैं - गुणी और निर्गुणी । गुणी की प्रशंसा करनी चाहिए और निर्गुणी की उपेक्षा करनी चाहिए। निर्गुणी पर द्वेष करने से हमें क्या मिलने वाला है? इसलिए उपेक्षा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। गुजराती में कहावत है - 'गाँव होगा तो वहाँ कचरा भी होगा ही?' सामने वाले व्यक्ति में गुण और दोष दोनों ही विद्यमान रहते हैं, किन्तु हमें तो उनके गुणों को ही देखना चाहिए और दोषों की उपेक्षा करनी चाहिए। यह गुणानुरागी का प्रथम चरण है। गुणानुराग का दूसरा चरण दूसरा चरण है, गुणों की स्तवना करने के पश्चात् स्वयं के जीवन में उन गुणों को उतारने की प्रवृत्ति करें। केवल दूसरों का गुण गाने से कुछ नहीं मिलता है। जो स्वयं में गुण हैं, तो उनको मलिन न होने दें, उनका विस्तार करें। हमने अच्छे वस्त्र पहने हो तो उसका किस प्रकार से ध्यान रखते हैं। उस पर एक भी दाग नहीं लगने देते हैं। उसी प्रकार स्वयं में रहे हुए गुणों को किसी भी प्रकार से मलिन न होने दें। चाहे दान, दया, परोपकार अथवा किसी भी प्रकार का गुण हो तो उसे खिलने का अवसर दें। दान देने वाले/लेने वाला चाहे लुच्चा-लफंगा, कमीना-कपटी हो तो भी देना बन्द नहीं करते है न! जो गुणानुरागी होगा वह सबका प्रिय होगा। उसको देखते ही सबका हृदय आनन्दित होगा। उसका नाम लेते ही सब हर्षित होंगे। इससे अधिक कमाई क्या चाहिए? गुणों के द्वेषी आदमी का नाम लेते हैं, तो दूसरे लोग भी कहेंगे कि रहने दो, इस आदमी का नाम मत लो। अन्यथा हमारा दिन भी बिगड़ जाएगा। गुणानुराग से पाप धुल जाते हैं और गुणानुरागी नहीं हो तो पुण्य धुल जाते हैं । हृदय में गुण ग्रहण की तीव्र अभिलाषा होगी तो गुण आएंगे ही और दोषों को ग्रहण करने की प्रबल इच्छा होगी तो वे ही दोष तुम्हारे में स्थान बना लेंगे। पूज्य पद्मविजयजी महाराज ऋषभदेव भगवान के स्तवन में कहते हैं - 'जिन
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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