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________________ गुरुवाणी - ३ गुणानुरागी ६१ धर्म को प्राप्त करने के लिए योग्य बनना पड़ता है। योग्य पात्र के पास में रही हुई सम्पत्ति भी स्थिर बनती है। किसी दिवालिया के हाथ में अथवा उड़ाऊ के हाथ में सम्पत्ति टिक नहीं सकती उसी प्रकार धर्म भी योग्य व्यक्तियों के जीवन में ही फलदायक होता है। शास्त्रकार महाराज हमको धर्म योग्य बनने के लिये कैसा गुणी होना चाहिए यह समझा रहे हैं। धर्म के योग्य मनुष्य का बारहवाँ गुण - गुणानुरागिता होती है । बारहवाँ गुण - गुणानुरागी गुणानुरागी अर्थात् दूसरों के अच्छे-अच्छे गुणों को ग्रहण करना..... गुण के अनुरागी बनना । मनुष्य को जब यह विचार आता है कि मेरे में रहे हुए अवगुणों को दूर कर सद्गुणों का आविर्भाव करना है, तो वह अवश्य ही कर सकता है, किन्तु यह विचार आता ही नहीं है। यह विचार कब बनता है? जब वह स्वयं का अन्तर्निरीक्षण करता है, तभी सम्भव होता है । हम दूसरे का निरीक्षण सूक्ष्म प्रकार से करते हैं। जबकि स्वयं. का अन्तर्निरीक्षण कभी नहीं करते। मैं स्वयं सर्वगुण सम्पन्न हूँ ऐसा ही वह मानता है और दूसरे में दोष ही दोष भरे हुए है । सन्त कबीर कहते हैं कि मैं स्वयं जब अपना निरीक्षण करता हूँ, तो मुझे ऐसा लगता है. अहो! मैं केवल दोषों से परिपूर्ण हूँ । सन्त जैसे सन्त भी जब स्वयं को दोषपूर्ण मानते हों तो अपनी औकात ही क्या है ! - गुणानुराग का प्रथम चरण जीवन में गुणों को आते हुए समय लग सकता है, किन्तु गुणानुरागी तो बन सकते है न! गुणानुरागी बनने के लिए गुणवानों की ओर बहुमान होना चाहिए। उनके गुणों की प्रशंसा करें, दूसरों के सामने उनके गुणों का वर्णन करें। गुणानुराग से सामने वाले व्यक्ति के हृदय के साथ का अन्तर मिट जाता है। उसके हृदय तक प्रवेश कर सकते हैं .... जब गुण और द्वेष के बीच का अन्तर बढ़ता जाता है, तब वह एकरूपता नहीं आ पाती ।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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