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मध्यस्थता
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गुरुवाणी-३ तपस्वी और दूसरों का कल्याण चाहने वाले साधु के पास वह रात को रहा। रात्रि में साधु महाराज स्वाध्याय करते हैं। उनकी वाणी को सुनने के लिए कोई सम्यग् दृष्टि देव वहाँ आते हैं। स्वाध्याय पूर्ण होने पर देव आज्ञा मांगते हैं। आज्ञा मांगते समय देव कहते हैं - हे महापुरुष! आप कुछ मांगिए, मेरी अभिलाषा है कि आपको कुछ दूं। महापुरुष तो निःस्पृही होते हैं अतः वे कहते हैं, मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस तुम्हारा कल्याण हो यही मुझे चाहिए। यह देखकर ब्राह्मण प्रसन्न होता है। जहाँ देवता भी देने के लिए तैयार हैं, किन्तु ये मुनि कैसे निःस्पृही है! उनके तपस्तेज से प्रभावित होकर वह ब्राह्मण स्वयं के आत्म कल्याण के लिए दीक्षा लेता है और सद्गति को प्राप्त करता है।
कहने का सारांश यह है कि ब्राह्मण मध्यस्थता के गुण को धारण करने वाला था, इसीलिए सत्य तत्त्व को पकड़ने के लिए वह इतना घूमाफिरा, अन्यथा पहले बाबाजी के अनुसार 'लड्डू-मिष्ठान्न खाना, निश्चिन्त होकर सोना और तन्त्र-मन्त्र के द्वारा लोगों को खुश रखना' इसी में फंस जाता तो सत्य धर्म को प्राप्त नहीं कर पाता।
किसी ने कहा है - अशिक्षित की अपेक्षा शिक्षित लोगों ने इस देश को अधिक नुकसान पहुँचाया है। ज्ञान के साथ मध्यस्थता हो तो आज का युग स्वर्णयुग बन जाए। इस गुण के अभाव में ही यह देश दुर्गुणों के शिखर पर पहुँचा हुआ है। अशान्ति प्रधान बन गया है। आज के इन नेताओं में यदि तटस्थता भाव आ जाए तो देश का कल्याण हो जाए....!
रे मानव....! बचपन में तू विष्टा में रमन करने वाला सूअर हुआ.... तरुणावस्था में तू कामवासना का गधा हुआ.... वृद्धावस्था में असमर्थ बैल जैसा हुआ.... मनुष्य कब बनेगा?