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________________ मध्यस्थता गुरुवाणी-३ है तो भी कहीं गहराई से इसका अर्थ मिल जाए तो मुझे जानना चाहिए। इसीलिए और किसी के पास जाकर इसकी खोज करनी चाहिए। गुरु की खोज में घूमता हुआ ब्राह्मण घूमते हुए वह पाटलीपुत्र नगर पहुँचा। वहाँ खोज करते हुए उसे ज्ञात हुआ कि यहाँ त्रिलोचन नाम के विद्वान् धर्मगुरु हैं । वह उनके पास पहुँचा। उसे वहाँ का विवेकपूर्ण वातावरण देखकर बहुत प्रसन्नता हुई। पण्डितजी से मिला और पूछा - पण्डितजी ! मुझे अपने जीवन को पवित्र बनाना है, व्रतों को स्वीकार करना है। कृपा कर आप मुझे ऐसे गुरु बतलाएँ जिससे की मेरा जन्म सफल हो जाए। पण्डितजी ने भी वही कहा- इन तीन पदों को जिसने जीवन व्यवहार में अंगीकार किया हो उन्हीं के पास तुम्हें जाना चाहिए। साथ ही पण्डितजी ने गुरु को बताते हुए कहा कि ये साधु-संत मीठा खाने वाले यानि जो मिला भले रूखा-सुखा उसे सहर्ष स्वीकार कर मीठास से खाने वाले होते हैं, इसीलिए इन्हें मिष्ठान्न भोजी कहते हैं और भिक्षा वृत्ति पर ही जीवित रहते हैं। तुम उनके पास जाओ तो वह तुम्हें धर्मलाभ कहकर आशीर्वाद देते हैं। तुम उन्हें अन्नदान, वस्त्रदान आदि दो, तब भी तुम्हें धर्मलाभ आशीष देते हैं और कुछ भी प्रदान नहीं करो तब भी धर्मलाभ का आशीर्वाद देते हैं। ये साधुगण निर्दोष जीवन जीते हैं। ये मिष्ठान्न खाते हैं और सतत् स्वाध्याय, ध्यान की आराधना में लीन रहते हैं। किसी को भी अप्रिय वचन नहीं कहते हैं, और ना ही दुषित विचार रखते हैं। इसी प्रकार निष्पाप, निष्परिग्रही, निश्चिन्त, निःस्पृही, निर्दम्भ, निरुपाधिक, निर्मल, निरुपद्रवी और निरोगी - नौ 'न' कार से युक्त जीवन जीने वाले होते हैं । शरीर रूपी साधन से आराधना- साधना में विक्षेप ना पड़े इसलिए स्वस्थ रहने पूर्ति सुखपूर्व अल्पनिद्रा लेते हैं। ऐसे व्यवस्थित और सुन्दर जीवन जीने वाले होने से वे लोकप्रिय भी होते हैं। ऐसे साधु पुरुष को तुम गुरु रूप में स्वीकार करना। वह ब्राह्मण वहाँ से उठा। किसी उपाश्रय में पहुँच गया। वहाँ साधु की दिनचर्या देखकर वह चकित हो गया। अप्रमत्त, त्यागी,
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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