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मध्यस्थता
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गुरुवाणी-३ शास्त्रकार कहते हैं-विगई विगई बला नेई, अर्थात् विकृति कारक पदार्थ विकृति लाते हैं और वे मनुष्य को बलात्कारपूर्वक खेंचकर दुर्गति में ले जाते हैं। संत का जीवन तो सामान्य भोजन वाला होना चाहिए। बाबाजी कहते हैं - अमुक स्थान पर मेरे गुरु भाई रहते हैं तुम उनसे जाकर मिल आओ। सत्य की शोध करने वाला ब्राह्मण
ब्राह्मण सत्य की खोज करता हुआ आगे जाता है। ब्राह्मण उनके गुरुभाई के पास पहुँचता है। वे आंगन में आए हुए अतिथि का सम्मान करते हैं और दोनों आरामपूर्वक बैठते हैं। वह ब्राह्मण कहता है- तुम्हारे गुरु ने तुम्हें तीन वाक्य, मन्त्र रूप में दिए हैं, उनका वास्तविक रहस्य क्या है? अथवा आप इन वाक्यों का क्या अर्थ करते हैं? बाबाजी बोले - गुरुजी ने मुझे पहला मन्त्र दिया था - मीठा खाना, इसका अर्थ मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रकार किया है - तेज भूख लगी हो तभी भोजन करने पर वह रुखी-सूखी रोटी भी मिठाई की अपेक्षा अधिक मीठी लगती है, अतः मैं एकान्तर उपवास करता हूँ और उपवास के दूसरे दिन एक ही समय भोजन करता हूँ उससे मुझे कड़कड़ाती हुई तेज भूख लगती है। लोगों में प्रिय होना - अर्थात् मुझे जो भोजन मिलता है वह मैं ग्रहण कर लेता हूँ, इस कारण मैं जनप्रिय भी बन गया हूँ। जनता के साथ मैं किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता, इसी कारण लोगों पर मैं भारभूत नहीं हूँ। लोगों के पास बारम्बार मांगते रहे तभी तो लोगों की अप्रीति होगी न! मुझे तो एक समय में जो मिलता है, वह लेता हूँ और सारा दिन स्वाध्याय में ही बिताता हूँ। स्वाध्याय के कारण मेरा दिमाग भी थक जाता है, इसीलिए रात को सोने के साथ ही मुझे नींद आ जाती है। अन्ट-शन्ट या अधिक खाने से ही शरीर बिगड़ता है। खुराक के अनुसार खाने पर वह शरीर को पुष्ट बनाती है और नहीं खाने पर निरोगी बनाती है। आज अधिक लोग बीमार किसलिए हैं? आज खाने का समय निश्चित नहीं है और कितनी बार खाना यह भी नियमित नहीं है। दिन में खाना भी चार या छ: बार खाते हैं। ब्राह्मण ने विचार किया - वाह ! बाबाजी ने वाक्य मन्त्र का अर्थ बहुत सुन्दर किया