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मध्यस्थता
आसोज वदि १३
सुख का आभास
शास्त्रकार महाराज संसार के सुखों को मृग जल के समान समझा रहे हैं। मनुष्य मृग जल को पीने के लिए इधर से उधर दौड़ रहा है। सुख की कल्पना केवल हमारी भ्रान्ति है और इसी भ्रम में सारा जीवन समाप्त हो जाता है, इसकी हमें खबर भी नहीं पड़ती। इस भ्रान्ति को दूर करने के लिए धर्म ही सक्षम है। पर इस धर्म के योग्य बनने के लिए गुणों की अपेक्षा है। धर्म की शोध में निकला हुआ ब्राह्मण
धर्मयोग्य बनना हो तो जीवन में मध्यस्थ भाव अत्यावश्यक है। तटस्थ भाव हो, तभी अन्य तुलना कर सकते हैं और सत्य को प्राप्त कर सकते हैं.... इस पर ब्राह्मण का दृष्टान्त चल रहा है। गरीब ब्राह्मण तीन वाक्यों के अर्थ की खोज में निकलता है। एक बाबाजी के मठ में पहुँचता है। बाबाजी को पूछता है - मीठा खाना, सुख से सो जाना और लोगों में प्रिय होना इन तीन वाक्यों का अर्थ क्या है? बाबाजी कहते हैं कि मेरे गुरुजी ने निम्न तीन पदों को बतलाया है, किन्तु उसका रहस्य बतलाने के पहले ही गुरुमहाराज स्वर्ग सिधार गये इसीलिए हम तो इन तीन वाक्यों का अर्थ इस प्रकार करते हैं - मीठा खाना अर्थात् गाँव में से अच्छी से अच्छी चीजें लाते हैं, गरिष्ठ पदार्थ खाते हैं, तो निद्रा भी मीठी आती है और शान्ति से रहते हैं। किसी प्रकार के झंझट में नहीं पड़ते हैं । यन्त्रमन्त्र और झाड़ा-झपाटा कर लोगों के दुःखों को कुछ कम करते हैं, इस प्रकार लोगों के प्रिय बन जाते हैं। इन तीन वाक्यों का सीधा सा अर्थ यही है। ब्राह्मण विचार करता है कि यह अर्थ समुचित प्रतीत नहीं होता । खाना
और सोना, क्या इसी के लिए यह जन्म है ! प्रथम वाक्य का यह रहस्य सच्चा नहीं है। विकृति से भरपूर भोजन चित्त को विकारी बनाता है।