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________________ मध्यस्थता गुरुवाणी-३ ५४ है और पुण्य के अभाव में लाख प्रयत्न करने पर भी हाथ में कौड़ी भी नहीं आती है । महापुरुष कहतें हैं कि पुण्य का संचय करो । पुण्य के अभाव में यदि सम्पत्ति मिल भी जाएगी तो वह सम्पत्ति सुख और शांति देने वाली नहीं होगी । स्वर्ण कोई खाया नहीं जाता। खाने के लिए तो अनाज ही चाहिए। धन के कारण अनेकों का खून होता है। सगा पुत्र भी अपनी माता को मार देता है। ऐसी तो अनेक घटनाएं पत्र-पत्रिकाओं में छपती है और पढ़ने में आती है । इसीलिए महापुरुष कहते हैं कि पुण्य संचय करो। 'पुण्य पूरा जब होयगा, उदय होयगा पाप, दाझे वनकी लाकड़ी, प्रगटे आपो आप । " धर्म कहाँ से प्राप्त किया जाए जब पुण्य क्षय होता है, तब चारों ओर से उपाधियों के दावानल सुलगते रहते हैं, जीवित मनुष्य भी उसमें समाप्त हो जाता है । करोड़ों रूपये हो तो कोई भोगने वाला नहीं होता। वह सम्पत्ति ही उसके लिए बोझ बन जाती है। आज के मनुष्य " धर्मस्य फलमिच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः" अर्थात् धर्म फल की इच्छा करता है, किन्तु धर्म की अभिलाषा नहीं करता है । वह ब्राह्मण हताश हो गया था कि उसे कहीं भी सफलता नहीं मिली । उसका मन धर्म की ओर झुकाव लेता है । धर्म शास्त्र के जानकारों के पास वह पहुँचता है । व्याख्याता कोई कथा सुना रहें हैं, तब तक वह वहाँ बैठा रहता है। जीवन में धर्म हो तो हाथी, घोड़ा, सैनिक, सम्पत्ति आदि प्राप्त होते हैं। अच्छे स्वजन, अच्छे मित्र भी धर्म से ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य धर्म करता है, तो जगत् में सारभूत वस्तुएं भी उसको मिलती है। ऐसा उस ब्राह्मण ने व्याख्यान में सुना । कथा पूर्ण होने पर कथाकार से पूछा - हे स्वामिन्! धर्म से सबकुछ प्राप्त होता है यह बात
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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