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________________ ५२ मध्यस्थता गुरुवाणी-३ यह गुण अत्यधिक महत्व का है। मनुष्य की छाप ऐसी पड़नी चाहिए कि विरोधी भी कह उठे कि ये जो कहेंगे वह हमें मंजूर है। मनुष्य ऐसा ही तटस्थ होना चाहिए। बहुत से लोग इस गुण के अभाव में सच्चे तत्व को प्राप्त नहीं कर सके हैं। मैंने ग्रहण किया वही सच्चा है। ऐसे व्यक्ति को सौ बार भी समझाएं तो वह तटस्थ न होने के कारण अपनी ‘बात का आग्रह नहीं छोड़ता.... आज समाज के अनेक कार्यों में तटस्थता के अभाव में दरारें पड़ जाती है। मध्यस्थ भाव से विचार करें तो बहुत से क्लेश शान्त हो जाते हैं.... मध्यस्थता के अभाव में, कुल परम्परा से चला आता हुआ असत्य धर्म समझते हुए भी नहीं छोड़ सकता.... उसको सन्मार्ग दिखाए तो भी वह स्वयं के धर्म का पूंछड़ा छोड़ता नहीं है। भीष्मपितामह पाण्डव-कौरवों के युद्ध के समय भीष्मपितामह कौरवों के पक्ष में थे। युद्ध के समय युधिष्ठिर भीम को कहते हैं - हे भीम! तुम जाओ, प्रतिपक्षियों के अग्र मोर्चे पर रहे हुए भीष्मपितामह का आशीर्वाद लेकर आओ। भीम कहता है - भाई! आप यह क्या कह रहे हैं? विरुद्ध पक्ष में रहे हुए व्यक्ति के पास से आशीर्वाद लेने के लिए जाऊं। क्या वह मुझे जीतने का आशीर्वाद दे देंगे? युधिष्ठिर कहते हैं - तुम जाओ ! मै तुम्हें कहता हूं न! मध्यस्थ भावधारी ही ऐसा कह सकता है। बड़े भाई की मान्यता थी। अतः दलीलों के चक्कर में न पड़कर भीम सीधे ही शत्रु की छावनी में गये। दादा के पैरों में पड़े और कहा - दादा! आशीर्वाद दीजिए। भीष्मपितामह कहते हैं - भीम! "अर्थस्य पुरुषो दासः नार्थो दासस्तु कस्यचित्" - अर्थात् पुरुष धन का दास है, किन्तु धन किसी का दास नहीं बनता है। हम आज दुर्योधन के दास बन गये हैं। हमारे उदर में उसका नमक है, इसलिए उसके पक्ष में खड़े रहने के सिवाय कोई मार्ग नहीं है, किन्तु “यतो धर्मस्ततो जयः।" अर्थात् जहाँ धर्म है, वहीं जय है।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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