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________________ मानव जीवन की सार्थकता किसमें है? ५० गुरुवाणी - ३ गाड़ी चल नहीं सकती। इस काँच के पत्थर को कौन पूजेगा । ऐसा सोचकर उसने वह रत्न बकरी के गले में से निकाल कर फेंक दिया। जयदेव उसके पीछे धीमे-धीमे आ रहा था । उसने यह सब देखा.... उसने वह रत्न ले लिया और घर आया, अट्ठम कर उसने इस रत्न की विधिपूर्वक आराधना की। उस रत्न का अधिष्ठायक देव प्रसन्न हुआ। जयदेव ने मनोवांछित वस्तु की याचना की.... बहुत धन प्राप्त किया। लोगों को खूब दान दिया। अन्त में पूर्णत: सुखी हो गया । महापुरुष कहते हैं कि 84 लाख जीवयोनि रूपी भयंकर अटवी को पार करते-करते महापुण्य के उदय से मानव जन्म को प्राप्त किया है। किन्तु जन्म-मरण के चक्र से छुटने के लिए अभी एक विशाल अटवी को पार करना शेष है, वह है- वृत्तियों की, विकारों की, और विचारों की। इस अटवी को पार करने के लिए (किसी समर्थ पुरुष) ईश्वर का साथ चाहिये ही । 84 लाख योनि के संस्कारों को जलाने के लिए तप रूपी अग्नि ही काम आती है। तप यानि अभ्यन्तर तप । हाँ, अभ्यन्तर तप को दृढ़ करने के लिए बाह्य तप सहारे का काम करता है। निर्मल होने के लिए चेतना के भीतर भरे हुये वैभव - विलास के पदार्थों को दूर कर वहाँ नवपद की स्थापना करो ।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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