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________________ मानव जीवन की सार्थकता किसमें है? आसोज वदि १० चिन्तामणिरत्न रूप धर्म धर्म रूपी रत्न के अभिलाषियों को महापुरुष कह रहे हैं कि मानव जन्म की सार्थकता घूमने-फिरने, पहनने, ओढ़ने में नहीं है, किन्तु धर्म रूपी रत्न को प्राप्त करने में है। आयुष्य पूर्ण होने पर कहाँ जाएंगे ? यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। गंभीरता से इस प्रश्न पर हमें विचार करना है। पदार्थों की प्राप्ति के लिए यह जन्म नहीं है किन्तु परमात्मा को प्राप्त करने के लिए यह जन्म मिला है। हम किस प्रकार के अर्थ के अभिलाषी हैं - पदार्थ या परमात्मा के? जगत् के अधिकांश समुदाय पदार्थ के प्रेमी हैं । धर्म के इच्छुक बहुत कम व्यक्ति हैं। मानव को ऐसा लगता है कि इस वैभवमय जीवन से ही मेरा कल्याण है, इसीलिए वह इसके पीछे पड़ा हुआ है / लगा हुआ है। बुद्धि एवं शक्ति और आरोग्य युक्त होने पर भी वैभव के पीछे वह पागल बनकर दौड़ रहा है और इस जन्म को व्यर्थ ही निरर्थक ही खो रहा है। जब इसकी समझ में यह आएगा कि धर्म ही श्रेयस्कारी है, तभी वह उसे प्राप्त कर सकेगा। महापुरुष धर्म का महात्मय हमें समझा रहे हैं। धन से धर्म खरीद सकते हैं क्या? तुम्हारे पास चाहे जितनी सत्ता और चाहे जितनी समृद्धि हो, किन्तु यदि धर्म नहीं है, तो वह सब पाप युक्त ऋद्धि है और वह पापऋद्धि मनुष्य को दुर्गति में खेंचकर ले ही जाती है। इस दुर्गति से छुटकारा पाने के लिए धर्म ही समर्थ है। यह धर्म उत्तम रत्न है। मानव को यदि रत्न चाहिए तो वह रूपये-दो रूपये में नहीं मिलता। लाखों रूपयों मे भी वह
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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