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________________ ४७ गुरुवाणी-३ अनमोल रत्न उसने तत्काल ही रत्न को आदेश दिया - अरे, ओ रत्न ! मुझे बोर लाकर दे, इस बकरे के लिए चारा लेकर आ और यहाँ छाया नहीं है तो छाया कर, किन्तु यह रत्न ऐसे ही कुछ थोड़े ही दे देता है। जयदेव पास में खड़ा था उसने कहा - अरे भाई! यह रत्न ऐसे तुझे कुछ भी देने वाला नहीं है। प्राप्ति के लिए तुझे तीन उपवास करने होंगे, इसकी पूजा करनी होगी। नम्रतापूर्वक नमस्कार करके ही इससे मांगना चाहिए। ऐसे ही इस रत्न को आदेश नहीं दिया जाता है। विधिवत् इस रत्न की साधना करनी पड़ती है। भगवान के साथ भी माया... आज हम क्या कर रहे हैं? संकट आने पर धर्म करने लग जाते हैं और संकट में से मुक्त होने के लिये भगवान से प्रार्थना करते हैं। सिर्फ उसी क्षण हम धर्म करते हैं और उसी क्षण ही उसका हम फल भी चाहते है। ऐसे फल कहाँ से मिलेगा? धर्म की तो आराधना, उपासना करनी पड़ती है। हम तो कहते हैं - हे शंखेश्वर दादा! जो मेरा यह कार्य हो जाएगा तो मैं आपके दर्शन के लिये आऊँगा अथवा अमुक रकम आपको भेंट : चढ़ाऊँगा.... आदि.... किन्तु हे मूर्ख मित्र! भगवान ऐसे कोई धन से खरीदने की चीज नहीं है। सच्चे दिल से इनकी उपासना करनी चाहिए। बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि मन्दिर में जाकर धन की एक गड्डी से भण्डार भर देंगे, तो भगवान् हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाएंगे। भगवान को तुम्हारे धन की आवश्यकता नहीं है। भगवान तो हृदय में दया, मानवता और परोपकारिता हो यही अपेक्षा रखते हैं, किन्तु आज तो इस प्रकार का धर्म पूर्णतः लुप्त होता जा रहा है।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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