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________________ अनमोल रत्न गुरुवाणी-३ खुद के भेड़-बकरियों को चरा रहा था। उसने एक बकरी के गले में रत्न लटकता हुआ देखा। वह रत्न के लक्षणों का जानकार था। सच्चा परीक्षक था। उसी समय परीक्षण किया तो उसे ज्ञात हुआ कि यही चिन्तामणि रत्न है। किसी मालिक को पूछे बिना बकरी के गले में से निकाल कर कैसे ग्रहण किया जाए। इसलिए उसने रबारी से पूछा - भाई! यह काँच का टुकड़ा तू मुझे दे दे और मैं इसके बदले बढ़िया से बढ़िया काँच के टुकड़े तुझे दे दूंगा। रबारी ने सोचा - यह भाई इस काँच के टुकड़े को मांग रहा है.और इसके स्थान पर अच्छे से अच्छा देने को कह रहा है अतः निश्चित है कि यह टुकड़ा कुछ कीमती होगा। अन्यथा ऐसा कौनसा मूर्ख मनुष्य होगा जो खराब के स्थान पर अच्छा देगा? रत्न की परीक्षा आज तो अच्छी वस्तु के बदले खराब वस्तु देने वाले ही होते हैं। पूरे पैसे लेते हैं किन्तु नकली माल देते हैं इसलिए भगवान भी इनके साथ मिलावट करेंगे ही न! अनीति का धन उल्टे मार्ग पर ही ले जाता है। या तो वह व्यसन की ओर ले जाता है या दवाखाने में। रबारी ने उस टुकड़े को कीमती जानकर, देने के लिए मना कर दिया। दोनों के बीच में खैचाखैची चल रही थी रबारी ने पूछा - भाई! इस टुकड़े का तुम क्या करोगे? जयदेव ने उत्तर दिया - मेरे लड़के को खेलने के लिए यह टुकड़ा चाहिए। रबारी ने कहा - ऐसे तो बहुत से टुकड़े पड़े हुए हैं, उनको तू खोज ले, यह टुकड़ा तो मैं नहीं दूंगा। जयदेव ने सोचा - मुझे यह देने वाला नहीं लगता है, अतः इसको रत्न का महत्त्व समझा दूं। उसने कहा - भाई! यह काँच का टुकड़ा नहीं है अपितु चिन्तामणि रत्न है। इसके पास से जो भी याचना की जाती है, वह मिल जाती है। तू इसकी सावधानी पूर्वक रक्षा करना। उस रबारी को ऐसा लगा कि यह आदमी बकवास करता है क्या? यह काँच का टुकड़ा इच्छित वस्तु को प्रदान करता है, कैसे मान लिया जाए! इसकी परीक्षा तो करूँ कि यह देता है या नहीं।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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