________________
गुरुवाणी-३
अनमोल रत्न करेंगे, वही परलोक में तुम्हारे साथ चलेंगे। इस धर्म को पहले समझो और फिर स्वीकार करो।
'धर्मरत्नप्रकरण' के प्रणेता श्री शान्तिसूरिजी महाराज गुणरूपी रत्नों के खजाने के समान प्रभु महावीर स्वामी को प्रणाम करके, धर्मार्थी जीवों के लिए धर्म कैसा हो, उसके आराधक कैसे हों? समझा रहे हैं।
__दुर्लभ मनुष्य जन्म कदाचित् महापुण्य के उदय से प्राप्त हो गया तब भी धर्म रूपी रत्न मिलना तो अत्यन्त दुर्लभ है। स्वयं धर्मार्थी हो और संत समागम करता हो तभी यह रत्न हाथ लगता है। चिन्तामणिरत्न की शोध करने वाले युवक की कथा
हस्तिनापुर नामक नगर में नाग नाम का एक सेठ रहता था। उसके वसुन्धरा नाम की पत्नी थी और जयदेव नाम का पुत्र था। वह पुत्र विनीत, आज्ञापालक और नीतिवान था। वह समस्त कलाओं का जानकार था। जौहरी बना, रत्नों की परीक्षा करने में अत्यन्त कुशल बना । शास्त्रों को पढ़ते हुए उसे जानकारी मिली कि यदि चिन्तामणि रत्न यदि हाथ लग जाए तो बेड़ा पार हो जाए। वह चिन्तामणि रत्न देवाधिष्ठित होता है। बहुत खोज की, पर क्या वैसे ही मिल जाता? रात-दिन इस रत्न की खोज में भटकता रहता है। उसे एक ही धुन थी। मनुष्य के दिमाग पर जब मन की तरङ्ग हावी हो जाती है तो वह उसके पीछे दिन या रात नहीं देखता है। डुंगरों और पर्वतों में रखड़ता रहता है। अन्त में उसे कुछ भी हाथ नहीं लगा। माता-पिता कहते हैं - हे वत्स! यह रत्न इस जगत में विद्यमान ही नहीं है। यदि विद्यमान होता तो तेरे हाथ अवश्य लगता। ऐसा प्रतीत होता है कि केवल शास्त्रों में ही इसका वर्णन आया है। तू तो इन रत्नो से व्यापार कर किन्तु पुत्र के मन में तो एक ही लगन थी कि शास्त्रों की बातें कभी असत्य नहीं होती। जैसे-तैसे करके इस रत्न को मुझे प्राप्त करना है। इसलिए वह प्रतिदिन प्रभात होते ही घर से उसकी खोज के लिए निकल पड़ता है। एक समय वह डूंगरों पर फिर रहा था। उस समय कोई रबारी