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________________ ४४ अनमोल रत्न गुरुवाणी-३ न? लड़का विचार करता है कि गए तो आफत मिटी, निश्चिन्त हुए। अब उनके पीछे धनव्यय करने का अर्थ क्या है? तो कितने ही लड़के समाज के भय से माँ-बाप के पीछे एकाध पूजन करवा देते हैं, बस पूर्ण हुआ। जितनी चिन्ता लड़को के पीछे माँ-बाप करते हैं, उसका शतांश भी चिन्ता लड़के माँ-बाप के लिए नहीं करते हैं। परलोक की चिन्ता करने का तो प्रश्न ही कहाँ है। इसमें भी यदि माँ-बाप बीमार हों, बीमारी लम्बी चली हो और वे मर जाएं तो वे ही स्वजन और लड़के कहेंगे, चलो, आफत मिटी, पिण्ड छूटा। यह वार-त्यौहार के मित्र स्वजन-सम्बन्धी हैं। माँ-बाप की ओर कैसी निर्लज्जता...! एक मात्र पुत्र है। पिता अस्पताल में मरण शय्या पर पड़ा है। पास में रहे हुए स्वजन ने लड़के के ऑफिस में फोन करा और कहा - हे भाई! तुम जल्दी आओ। तुम्हारे पिता अन्तिम अवस्था में हैं। पुत्र ने जवाब दिया- मैं अभी आवश्यक कार्य में व्यस्त हूँ, निकल नहीं सकता, इसीलिए आप अच्छी तरह संभालते रहना। पुत्र, पुत्र! कहता हुआ पिता परलोक की यात्रा पर पहुंच गया। सेवा में रहे हुए स्वजन ने उस निष्ठुर पुत्र को फोन किया – भाई! अब तो जल्दी आ जाओ, तुम्हारा पिता तुम्हें देखने के लिये तरसता हुआ मर गया है। कंधा देने के लिये तो आ जाओ। इस कलयुग की हवा से रङ्गे हुए पुत्र ने क्या जवाब दिया, सुनना है? उस निर्लज्ज पुत्र ने क्या कहा? अब मैं आकर क्या करूँगा। आप ही क्रियाकर्म कर डालिए। कितनी निष्ठुरता है ! उनके जीवित रहते हुए भी हम उन्हें नहीं संभाल सके तो मरने के बाद हम कहाँ चिन्ता करने वाले हैं। पहचान वाला मित्र - धर्म तीसरा मित्र जो कभी-कभी मिलने वाला है/पहचान वाला है, वह है हमारा धर्म । जो सच्चा मित्र है उसके साथ हमारे सम्बन्ध कैसे हैं? दर्शन करने गये, रास्ते में मिल गए तो नमस्ते कह दिया। क्षण मात्र का ही तो सम्बन्ध है न! शास्त्रकार कहते हैं - जो इस लोक में तुम्हारा रक्षण
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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