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________________ गुरुवाणी-३ ____४३ अनमोल रत्न प्राणप्रिय मित्र - शरीर . ___ हमारा प्रतिदिन का प्राणप्रिय मित्र कौन है? जानते हो? हमारा शरीर। हम इसको, जो चाहिए, जब चाहिए वह सब कुछ देते हैं। यह गुटका मांगे तो गुटका देते हैं, पानमसाला चाहे तो पानमसाला देते हैं । अरे, इनसे भी बड़कर वह यदि शराब चाहता है तो शराब देते हैं और अण्डा मांगता है, तो वह भी देने के लिये तैयार रहते है। ठीक है न! तुम रातदिन कमाते हो किसके लिये? धन मिले तो भाग्यशाली होता है या धर्म मिले तो भाग्यशाली होता है? शास्त्रों में नौ नन्द की कथा आती है। उन्होंने सोने की ९ टेकरियाँ/टीले बनवाये थे किन्तु वह साथ क्या ले गया? सोना क्या? पीली मिट्टी या और कुछ? दस-बीस हजार की साड़ी भी क्या है? आखिर में कपड़ा ही तो है ! या और कुछ है? ऐसा जब समझ में आएगा तब ऐसा लगेगा कि मुझे धन नहीं धर्म चाहिए। जिसके लिये रात-दिन लगे हुए हैं, जिसको नहलाया-धुलाया, खिलाया-पिलाया, सजाया किन्तु इस जीव के जाने का जब समय आता है, तो क्या यह शरीर हमारे साथ चलता है? नहीं, वह तो यहीं लकड़ियों में जल जाता है। रात-दिन का सम्बन्ध एक ही क्षण में समाप्त हो जाता है। यह हमारे प्राणप्रिय मित्र की कहानी है। वार-त्यौहार का मित्र - स्वजनवर्ग अब दूसरा मित्र वार-त्यौहार का मित्र है। वह है हमारे सगेसम्बन्धि और स्वजन। जब जीव जाने का होता है, उस समय हमारे स्वजन-सम्बन्धि कुछ कर सकते हैं क्या? जो इस लोक में नि:स्वार्थ सम्बन्ध रखते नहीं हैं, वे हमारे परलोक के सम्बन्ध में क्या विचार करने वाले होंगे? जीवन समाप्त हुआ, गए.... जला आए, खत्म हुआ। वे कोई इस प्रकार विचार करते हैं कि इसके पीछे हम कुछ दान पुण्य करें, जिससे की उसको परलोक में शान्ति मिले। नहीं, ये लोग तो ऐसा विचार करते हैं कि उससे हमें क्या लेना-देना । करना होगा तो उनके लड़के ही करेंगे
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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