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________________ ४० धर्म मित्र कैसा हो? गुरुवाणी-३ है। वह वहाँ से वापिस लौटता है, उसी समय उसे तीसरे मित्र की याद आती है। कहावत है कि - डूबते मनुष्य को तिनके का भी सहारा काफी है। लकड़ी पकड़े तो समझ सकते हैं कुछ सहारा मिलेगा। किन्तु तृण पकड़ने वाले को हम क्या कहेंगे? मूर्ख ही कहेंगे न! मन में तो समझता है कि प्राण प्रिय दोस्त ने मुझे सड़क का रास्ता दिखाया। वार-त्यौहार को मिलने वाले मित्र ने भी मुझे घर से निकाल दिया। तो ऐसी अवस्था में कदाचित् मिलने वाले और आँखों की पहचान वाले मित्र से मुझे मदद की आशा नहीं करनी चाहिए। फिर भी लाख निराशाओं के बादल में भी एक अमर आशा छुपी हुई रहती है। इस आशा के सहारे वह उसके घर जाता है। सेठ को अपने घर के आंगन में आते हुए देखकर वह मित्र सामने आता है, प्रेम और मधुर वचनों के साथ उसका सत्कार करता है और आगमन का कारण पूछता है। सेठ उसके समक्ष अपनी सारी घटना सुना देता है। सेठ के मुँह से सारी घटना सुनकर वह मित्र तत्काल बोल उठता है - अरे सेठ, इस छोटी सी बात पर आप चिन्तित क्यों हो रहे हो? मित्र होने के नाते यह मेरा कर्त्तव्य है। संकट के समय जो सहायता करता है वही सच्चा मित्र कहलाता है। मैं तुम्हारी यदि मदद नहीं करूँगा तो मेरे जैसा मित्र किस काम का। चलो तैयार हो। आंगने में बांधे हुए घोड़े को तैयार किया तलवार बांधी, रास्ते के लिए कुछ भोजन लिया और स्वयं उस घोड़े पर सेठ को बिठाकर देश की सरहद के पार पहुँचा दिया। सीमा पार पहुँच कर कहा- यह घोड़ा लीजिए और इस पर बैठकर इस सीमा के पार दूसरे राज्य में चले जाइए। दूसरे राज्य में प्रवेश करने के बाद इस राजा की कोई भी चाल काम नहीं देगी। मेरी चिन्ता मत करिये। मैं राजा के साथ सम्बन्ध बनाकर उसके मन की बात उगलवा लूंगा। कुछ द्रव्य भी साथ लेते जाइए। दूसरे देश में जाओगे तो उस अंजानी दुनिया में आपका कौन होगा? सेठ तो आनन्द मग्न हो गया। मन में विचार करने लगा कि वाह रे वाह ! यदाकदा मिलने वाले पहचान मित्र ने मुझे वास्तविक रूप
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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