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________________ ३९ गुरुवाणी-३ धर्म मित्र कैसा हो? के साथ मित्र के घर गया और सारी स्थिति कह सुनाई। सुनते ही प्राण प्रिय मित्र चौंका। उसने विचार किया कि यदि मैं इस राज्य के अपराधी को आश्रय दूंगा तो यह आफत मेरे ऊपर ही आ जाएगी। मैं कुटुम्ब के साथ बरबाद हो जाऊँगा। इसका तो एक घड़ी भी यहाँ खड़ा रहना उचित नहीं है। किसी को खबर लग गई तो मेरे बारह बज जाएगें। उसने सेठ से कहा - हे सेठ! मदद की आशा रखे बिना ही तुम अपना रास्ता नापो। जो राजा को इसकी गन्ध भी मिल गई तो मेरा खेल खत्म हो जाएगा। जल्दी खड़े होकर चले जाओ। सेठ तो यह उत्तर सुनकर हक्के-बक्के से रह गये। यह क्या? यह मेरे प्राण प्रिय मित्र के वचन हैं? सेठ का तो कलेजा विन्ध गया। जिसके पीछे पागल होकर मैंने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, जिसको मैं अपना प्राण समझता था, उसी के ये शब्द! सेठ एकदम निराश हो गया। तुम्हारे आज के मित्र भी ऐसे ही होते हैं न! जिसकी पंगत में लड्डू उसी पंगत में हम । स्वामी रामतीर्थ कहते थे कि पूर्व काल में लोग प्रार्थना करते थे कि भगवान् मुझे मेरे शत्रुओं से बचाना किन्तु आज भगवान के सन्मुख यह प्रार्थना करनी पड़ेगी की भगवन् ! मेरे मित्रों से मुझे बचाना। तुम्हारी मित्र मण्डली कैसी है? हमेशा भोग विलास में ही मदमस्त रहती है। साथ ही तुमको भी खेंचकर कुमार्ग पर ले जाने वाली है, शराब जैसे भयंकर व्यसनो में डुबाने वाली है। व्यसन मित्रों की संगत ही तुम्हारे जीवन में छाई हुई है न? खरेखर यदि मित्र बनाओ तो संयमी को ही मित्र बनाना। जिसका सादा जीवन हो वही तुम्हें सही जीवन जीने की कला दे सकता है, परन्तु वह स्वार्थी नहीं होना चाहिए। सेठ उस स्वार्थी मित्र के शब्दों को सुनकर हताश हो अपने घर आ जाता है। उसी समय वार-त्यौहार के दिन मिलने वाला मित्र याद आता है, सेठ उसके घर जाता है। जाकर सारी घटना बताता है। प्राण प्रिय मित्र के समान ही इस मित्र ने भी उसको सड़क का रास्ता दिखा दिया। सेठ को ऐसा लगने लगा कि पैर के नीचे से धरती खिसक रही है। आँखों में मृत्यु तैर रही
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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