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धर्म मित्र कैसा हो?
गुरुवाणी-३ यहाँ लाकर बर्फ की शिलाओं पर सुला दिया जाए तो वह छ: महीने तक निश्चिन्त होकर सो जाए। वहाँ ऐसी कातिल ठण्ड है। चौथी नरक में ठण्ड और गर्मी दोनों है। नरक के दुःखों का वर्णन सुनते-सुनते हृदय कांप उठता है। परमाधामी देव तीक्ष्ण आरों से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं । भयंकर प्यास से पीड़ित नारकियों को वैतरणी नाम की नदी की ओर दौड़ाते हैं। उस नदी में पानी के स्थान पर गर्म किया हुआ शीशा रहता है। ताप से पीड़ित नारकी छाया की आशा से असिपत्र वन में दौड़ते हैं, तो उस वृक्ष के पत्ते तलवार के समान तेज धार वाले होते हैं और वे शरीर का भेदन कर देते हैं। परस्त्रीगमन के सुख को याद दिलाते हुए उनको लोहखण्ड की धधकती पुतलियों के साथ आलिंगन करवाते हैं। माँस और शराब के स्वाद की याद दिलाते हुए उनको गरमागरम शीशा पीलाते हैं। पूंजते/पकाते हुए, तीक्ष्ण शस्त्रों से छिन्न-भिन्न होते हुए भयंकर वेदनाओं से चीख फाड़ते हुए नरक के जीव वहाँ क्षण मात्र भी सुख को प्राप्त नहीं करते हैं। वैसे नरक में सुख के मार्ग की कल्पना भी नहीं की जा सकती। देवलोक में सुख ही सुख है] किन्तु वह भी सच्चे सुख का मार्ग नहीं है। देवगण सुख में अत्यन्त आसक्त होने के कारण जब उनके वहाँ से च्युत होने का समय आता है तब वे दीन बनकर प्रबल आघात से पीड़ित होते हैं। जहाँ आसक्ति होती है वहाँ उत्पत्ति होती ही है। इस नियम के आधार पर वे पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में जाकर गिरते हैं। तिर्यञ्च गति तो हमारी आँखों के सामने ही है। उसकी वेदनाओं को हम अपनी आँखों से देख रहे हैं । चींटी से लेकर हाथी तक के जीवों को होने वाली भयंकर पीड़ाएं हमारी आँखों के सामने है। केवल यह मानव जन्म ही एक ऐसा है, जहाँ मानव चाहे तो सुख का मार्ग प्राप्त कर सकता है। बस जीवन को बदलना मात्र है, आकार देना मात्र है। पत्थर तो पत्थर ही है, किन्तु उसको शिल्पीगण टांचते हुए एक महामूर्ति का निर्माण करते हैं । लाखों लोग उस मूर्ति के चरणों पर गिरते हैं। वह