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________________ ३३ गुरुवाणी-३ आवश्यकता का संयम न तो अच्छा खाने को मिलता था और न ही पहनने को अच्छे वस्त्र । बचपन से लेकर बुढ्ढा हुआ मरने तक उसने वह जगह नहीं छोड़ी। उसके मरने के बाद दूसरे भिखारियों को ऐसा लगा कि यह स्थान अपशकून वाला है। इस भिखारी ने वहाँ बैठकर भीख मांगी किन्तु वह कभी सुखी नहीं हुआ अतः हम इस स्थान को खोद डालते हैं। सब भिखारी इकट्ठे हुए और उस जमीन को खोदने लगे। कुछ खुदाई होने पर आँखों को चकाचौंध करने वाला स्वर्ण मोहरों से भरा हुआ एक घड़ा निकला। इस घड़े पर ही बैठकर उसने सारी जिन्दगी बिताई किन्तु उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ा क्योंकि उसने कभी भी झुककर देखा ही नहीं। उसी प्रकार हम भी कभी भी भीतर अन्तर में दृष्टिपात नहीं करते हैं और अन्त में भिखारी के समान सारी जिन्दगी को हारकर इस लोक से चले जाते हैं। विवाह अर्थात् प्रभुता में प्रयाण या पशुता में मनुष्य विवाह करता है। तब कहा जाता है कि प्रभुता में पैर रख रहा है। वह प्रभुता होती है या पशुता। जिस प्रकार बैल के नाक में नाथ (नकेल) डालकर चलाया जाता है, उसी प्रकार स्त्री पुरुष को घुमाती रहती है। पुरुष परतन्त्र बन जाता है। बड़े-बड़े राजा भी स्त्री की परवशता को स्वीकार कर जीवन हार गये हैं। सयाजीराव गायकवाड बड़ौदरा के महाराज निःसन्तान ही परलोक सिधार गये। राजगद्दी पर कौन आएगा यह विकट प्रश्न था। नियम ऐसा था कि सगोत्रीय मनुष्य ही उस सम्पत्ति का मालिक होगा और वह गायकवाड थे अतः गायकवाड ही होना चाहिए। उनकी रानी हकदार को ढुढंने के लिए निकलती है। उस समय में महाराष्ट्र में गायकवाडों की बस्ती अच्छी संख्या में थी। वह कलवाणा नाम के गाँव में गई। वहाँ खोज की। सब गायकवाड इकट्ठे हुए, किसको पसंद किया जाए? क्योंकि बड़ी उम्र का मनुष्य भी काम का नहीं और बहुत छोटी उम्र का व्यक्ति भी काम में नहीं आ सकता। मध्यम
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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