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________________ गुरुवाणी-३ आवश्यकता का संयम महाभारत आती हो अथवा हमारे नगर में कोई अभिनेता आता हो तो हम सौ कामों को छोड़कर उसके पीछे दौड़ते हैं.... अपने हित के लिए तुमने क्या किया? तुम तो व्यर्थता में जीवन निष्फल कर रहे हो। आवश्यकताओं को कम करो महापुरुष कहते हैं कि धर्म की सच्चे अर्थ में आराधना करना चाहते हो तो पहले धर्म को समझना होगा। धर्म कैसा? अहिंसा, संयम और तप से युक्त तथा मन, वचन और काया का संयम हम देख चुके हैं। अब शेष रहा आवश्यकता का संयम अर्थात् आवश्यकताएं कम करो। मेरे गुरु महाराज कहते थे कि सरकार ने जनता को 'उत्पादन बढ़ाओ' का सूत्र दिया और जनता ने उसे अंगीकार किया। पचास वर्ष पहले इस देश में जिस प्रकार की शान्ति थी, वह शांति उत्पादन बढ़ने से बड़ी या घटी? आज यह देश पच्चीस हजार करोड़ से अधिक का कपड़ा विदेश भेजता है। ऐसी एक वस्तु नहीं, अनेक वस्तुएं यह देश उत्पादन बढ़ाकर बाहर भेज रहा है। चीजों और वस्तुओं का ढगला है, किन्तु जीवन में शान्ति कहाँ? मनुष्य तो अशान्त का अशान्त ही नजर आता है। चीज - वस्तुओं की अपेक्षा मनुष्य निर्माल्य अथवा बेकार बन गया है, रोगों का घर बन गया है। प्रत्येक काम में मशीन-कचरा निकालने के लिए और कपड़ा धोने के लिए मशीन, अनाज पीसने के लिए तथा बर्तन साफ करने के लिए मशीन आ जाने के कारण मनुष्यों के हाथ-पैर बेकार हो गये हैं। काम करने के लिए शरीर को जो परिश्रम मिलना चाहिए वह नहीं मिलता अतः कमर के रोग पैरों के रोग घर कर गये हैं। शरीर कुरूप बन गया है। चर्बी बढ़ गई है। पहले हमारी बहनें सारा काम स्वयं ही करती थी और ८० वर्ष की अवस्था में भी ५-७ किलोमीटर चल सकती थी। शरीर भी कसा हुआ और सुढौल रहता था। आज तो खाना बनाने के लिए भी खड़े होकर बनाना पड़ता है। खड़े-खड़े रसोई बनाने से पैर के सांधे जकड़ जाते हैं। अरे, खाने के लिए भी डायनिंग टेबल होती है। हमारे पूर्वजों ने
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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