________________
आवश्यकता का संयम
आसोज वदि ७
मानव की पूंजी
इस जगत में मानव जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। इस जन्म को प्राप्त करके क्या करना चाहिए यह सबसे बड़ा प्रश्न है। मानव के पास ही विचारधारा है। पशुओं में किसी प्रकार की विचारणा शक्ति नहीं होती है। वे तो केवल आहार संज्ञा, भय संज्ञा और मैथुन संज्ञा में ही रचे- पचे रहते हैं । देवगण स्वयं के सुख में मग्न रहते हैं अतः किसी भी दिवस विचार करने कि उन्हें आवश्यकता नहीं होती और अवकाश भी नहीं होता । नारकी के जीव वेदना मे पीड़ित रहने के कारण उनके पास भी कोई विचारशक्ति नहीं होती । केवल मनुष्य के पास में ही यह विशाल पूंजी है। मनुष्य विचार करके अपने जीवन और व्यवहार में परिवर्तन ला सकता है। सौ वर्ष पहले के मनुष्यों का जीवन, रहन-सहन, पहनावा, और कार्यक्षमता कैसी थी और आज कैसी है? मनुष्य स्वयं परिवर्तनशील है। शास्त्रकार कहते हैं -- हे मानव, तू सावधान हो जा। बिगड़े हुए लड़के की चिन्ता माता-पिता को कितनी होती है? लड़के को तो आनन्द आता है, किन्तु वह माता-पिता कि अतवेदना को नहीं समझ पाता। जबकि वह माँ - बाप के खून का पानी करता रहता है । उसी प्रकार महापुरुष हमारे जैसे मार्ग भ्रष्ट और भोग-विलास में डूबे हुओं को खोजता है । हमारे पीछे वे अपना कितना कीमती समय नष्ट करते हैं किन्तु आवारा घूमते हुए लड़के की तरह हमारे ऊपर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । हमारे पूर्वजों ने मन्दिर बनवाएं, किसलिए? पुजारियों के लिए? तुम्हें तो मन्दिर के दर्शन करने का भी अवकाश नहीं है । निःस्वार्थ भाव से साधु-संत धर्म का मर्म समझाने के लिए गाँव-गाँव घूमते हैं, पर तुम्हे धर्म सुनने का अवकाश ही कहाँ है, जबकि टी.वी. पर रामायण अथवा