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गुरुवाणी-३
धन नहीं, धर्म का संग्रह करो जन्म तुम्हारे लिये जागने का है अतः तुम जाग जाओ.... और देखो.... मृत्यु क्षण-क्षण में हमारे निकट आ रही है। धर्म का संचय करना चाहिए, लेकिन आज धर्म के बदले धन का संचय करने में ही सारा जगत डूब रहा है। मानो अजर-अमर बनकर यहीं स्थाई रहने का हो! इसीलिए बड़े-बड़े फैलाव/पसारा करता जा रहा है। उदर पूर्ति हेतु दो रोटी के लिए चाहे जैसा पाप करने में नहीं हिचकता है। बस रात-दिन धन का संचय करने में ही आकण्ठ डूबा हुआ है। क्या पशु किसी वस्तु का संग्रह करता है? जबकि मनुष्य तो सात पीढ़ी तक नहीं खूटे उतना धन संग्रह करता है।
रे जीव...! बाल्यावस्था में तू मातृमुखी रहा.... युवावस्था में तरुणीमुखी बना.... वृद्धावस्था में पुत्रमुखी बना.... तो तू अन्तर्मुखी कब बनेगा....?