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धन नहीं, धर्म का संग्रह करो गुरुवाणी-३ विचार करता है कि यह सब लोग हाथ में किस चीज की पुड़िया लेकर आते हैं। किसी दरबारी को पूछते है । वह कहता है - राजन्, कोई मनुष्य राजसभा के बाहर चना बेचता है। वह बहुत स्वादिष्ट है, खाने योग्य है। राजा का मन हुआ, उसने भी मंगवाए। चना देने के लिए यह भाई रोज राजदरबार में आता है। धीरे-धीरे परिचय बढ़ता है। बादशाह के हृदय में उसके प्रति बहुत आदरभाव पैदा होता है। उसकी वाचालता पर राजा मुग्द हो जाता है। उसे सुखी करने की राजा की इच्छा होती है अतः राजा बंगाल के किसी अधिकारी पद पर उसकी नियुक्ति कर देता है। उसके लिए एक फरमान पत्र तैयार करता है। उसमें उसका नाम लिखा जाता है किन्तु संयोग से उसका जो नाम था उसके स्थान पर 'जगतसेठ' ऐसा नाम लिखा जाता है। दो-तीन बार कागज पर नाम लिखकर फाड़ देता है, किन्तु बार-बार यही नाम लिखा जाता है। उससे बादशाह ने सोचा - शायद अल्ला को मंजूर होगा। इसलिए उसने उसको जगतसेठ की पदवी दे दी। गंगा के किनारे पर जंगी हवेली बनाकर उसको दी गई। वह भाई वहाँ रहने लगा। रोड़पति से करोड़पति बन गया। कर्मसत्ता के आगे किसी का जोर नहीं चलता है। कर्म विपरीत हो गये। कोई पाप का उदय हुआ। एक समय रात्रि में जब सब सो रहे थे। भरपूर निद्रा में थे। उस समय, अचानक ही गंगा में प्रबल तूफान आया। गंगा के किनारे ही उसका बंगला था। उस पूर को देखकर सब लोग बंगले के ऊपरी मंजिल पर चढ़ गये। नीचे भोयरे तलघर में अपार सम्पत्ति भरी हुई थी। अपनी आँखों से ही अपने धन को पानी के वेग के साथ बहता हुआ देख रहा था किन्तु क्या करे? धन का बचाव करें या तन का बचाव करे। सब कुछ पानी की भेंट चढ़ गया। स्वयं बच गया। उसके ही वंशजों को अन्त में नौकरी करने का समय आया। महापुरुष कहते हैं, इन आँखों के सामने ही सारा धन मिट्टी में मिल जाना है। यह अनहोनी बने उससे पहले ही तूं सावधान हो जा। तेरे आत्मधन को बचा ले। इस अनहोनी को कोई रोक नहीं सकता। यह