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गुरुवाणी-३
धन नहीं, धर्म का संग्रह करो हुए परिस्थिती गरीब थी। बड़े भाई का जैसे-तैसे विवाह हो गया। एक दिन छोटा भाई बाहर के गाँव से आया था। उसने भाभी के पास से पानी माँगा। भाभी किसी काम में व्यस्त थी इसलिए उसे आने में देर लगी। इस कारण छोटा भाई एकदम आपे से बाहर हो गया। क्रोध का आवेग भयंकर होता है और जब वह आवेग में आता है, तो मनुष्यता, विनय, विवेक आदि की मर्यादा के बांध को लांघ जाता है। चरक नाम के आरोग्य शास्त्र के विद्वान् ने चरकसंहिता में लिखा है कि आवेग को कदापि न रोकें । जैसे कि मल, मूत्र, छींक और उबासी.... आदि, किन्तु अमुक आवेगों को तो अवश्य ही रोकना चाहिए। जैसे - काम, क्रोध और लोभ । आवेग और आवेश ये हमारे भयंकर शत्रु है। जब ये उत्पन्न हों उस समय एक या दो क्षण बीता दें तो हम उसकी प्रबलता से बच सकते हैं। कहावत है कि - "अणी चूक्यो सो वर्ष जीवे' किन्तु उस क्षण को बीता देना यह अच्छे-अच्छे साधु-सन्तों के लिये भी कठिन है। क्रोध में बेकाबू होकर छोटे भाई ने भाभी को कहा - तुम्हे इतना समय कैसे लगा? भाभी भी गुस्से में आ गई और उसने कहा - इतना रोब किस पर दिखाते हो? बहुत ज्यादा जल्दी है तो पानी देने वाली को ले आओ न? देवर को क्रोध चढ़ा, घर से निकल कर सीधा दिल्ली पहुँचा। दिल्ली पर मुगल बादशाह का राज था। क्रोध ही क्रोध में घर से निकल तो गया, किन्तु इतने बड़े शहर में कहाँ जाना? जीवन निर्वाह कैसे करना? कहावत है - "जेणे दांत आप्या छे ते चावणुं आपशे ज।" जैसे-तैसे करके उसने ‘चणा जोर गरम' का धन्धा प्रारम्भ किया। बोलने में वह मधुर भाषी था। वह ऐसे लहजे से बोलता था कि लोग उससे आकर्षित होकर उसके पास आने लगे। उसका धन्धा जम गया। राजसभा के ठीक सामने ही खूमचा लगाकर वह खड़ा रहता था। राजसभा में बहुत दरबारी आते थे। उसकी मधुर भाषिता से आकर्षित होकर अनेक दरबारी चना खरीदते थे और चने की पुड़िया को हाथ में लेकर राजसभा में प्रवेश करते। बादशाह