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________________ धन नहीं, धर्म का संग्रह करो आसोज वदि६ भयंकर भूतकाल परम कृपालु परमात्मा हमें कह रहे हैं कि हे मानव! तू अपने भूतकाल पर दृष्टि डाल! पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय ओर वनस्पति काय में तूने अनेक प्रकार की भयंकर वेदनाओं को भोगा है। पृथ्वीकाय का समारम्भ हम अपनी नजरों से देख रहे हैं। इमारतों को बनवाने के लिये पृथ्वीकाय के जीवों की भयंकर हिंसा चल रही है। इस योनि में हमने अनेक बार कुदाली के घाव खाएं होंगे। तीक्ष्ण हल से हमको खेड़ा गया होगा। इस पर दृष्टि डालें तो कांप उठेंगे। प्रत्येक काय में इस जीवात्मा ने भयंकर वेदनाओं को भोगा है। किसी पुण्य के बल से ही यह जीवात्मा इतनी ऊँची गति में आई है। यहाँ भी यदि चूक गया तो फिर यातनाओं की परम्परा चालू हो जाएगी। अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः। नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसञ्चयः॥ ज्ञानीजन कहते हैं कि हे मानव! यह शरीर अनित्य/नाशवान है और यह वैभव भी शाश्वत/स्थाई नहीं है। एक ही रात में मनुष्य करोड़पति बन जाता है और एक ही रात में रोड़पति बन जाता है। प्रतिक्षण मृत्यु निकट आ रही है अतः तू धर्म का संग्रह कर ले। किन्तु आज मानव पूर्णरूपेण इससे विपरीत दिशा में चल रहा है। इसको स्वयं का शरीर नित्य लगता है इसीलिए रात-दिन इसका श्रृङ्गार/रक्षा करने में व्यस्त रहता है। चौबीसों घण्टे इस देह की पूजा में बिताता है। भगवान् की पूजा तो सिर्फ अष्टप्रकार की, सत्तरहभेदी, चौसठ प्रकारी और नव्वाणु प्रकार की ही है। किन्तु इस देह की पूजा तो एक सौ नव्वाणु प्रकारी हो तो भी
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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