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________________ गुरुवाणी-३ काया का संयम रौहिणेय चोर . शास्त्रों में रौहिणेय चोर का कथानक आता है। उसके पिता भयंकर नामी चोर थे। उसने अपने पुत्र को भी चोर बनाया। मरण शय्या पर पड़ा हुआ कुछ कहने के लिए विचलित हो रहा था। रौहिणेय पूछता है - पिताजी! क्या आपकी कोई इच्छा अधूरी रह गई है। पिता कहते हैंपुत्र जाते-जाते मैं तुझे एक शिक्षा देता हूँ। इस नगरी के चारों ओर महावीर नाम का एक धूर्त घूम रहा है। वह सबको कह रहा है - हिंसा मत करो, जुआ मत खेलो, चोरी न करो आदि आदि, किन्तु तुम उसकी बात कभी भी सुनना नहीं। वह धूर्त जहाँ भी इस प्रकार का उपदेश देता हो तुम्हें उस मार्ग को ही छोड़ देना है। बस यही मेरी अन्तिम इच्छा है, तुम वचन दो तो मेरे प्राण आसानी से निकल जाएंगे। पुत्र ने वचन दिया, पिता मृत्यु धाम को प्राप्त हुए। पिता की शिक्षा का वह पूर्ण रूप से पालन करता है। भगवान जहाँ देशना दे रहे हों उस मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग पर चल देता है। एक दिन जोगानुजोग ऐसा बना कि उसे चोरी करने के लिए जिस मार्ग से जाना था, उसी मार्ग पर भगवान् की देशना चल रही थी। उस ओर जाने के लिये दूसरा और कोई मार्ग नहीं था। मन को मारकर वह उस मार्ग पर जाता है। मेघ के समान गम्भीर ध्वनि पूर्वक भगवान् की देशना चल रही है। देशना में देवों का वर्णन चल रहा है। रौहिणेय को उस मार्ग से. जल्दी से जल्दी भागना है जिससे की भगवान् के शब्द उसके कानों में प्रवेश न कर सके और पिता को दिया हुआ वचन भी भंग न हो। इसी कारण दोनों कानों में अंगुली डालकर वह दौड़ने लगा। वेग के साथ वह दौड़ता है किन्तु दौड़ते-दौड़ते उसके पैर में कांटा चुभ जाता है। कांटा गहराई के साथ चुभा था इसलिए उस कांटे को निकालने के लिए वह अपनी अंगुलियों को कान मे से निकालता है। ज्यों ही कान से अंगुली को निकालता है, त्यों ही कानों में भगवान् के मधुर शब्द प्रवेश कर जाते हैं
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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