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________________ २० काया का संयम गुरुवाणी - ३ उसकी दृष्टि सामने के मकान पर पड़ती है । वह देखता है एक सुन्दर युवती एक तेजस्वी युवान मुनि को भाव पूर्वक दान दे रही है / वहोरा रही है। मुनि स्वयं के लिये उपर्युक्त आहार ग्रहण करने के बाद अधिक लेने से इन्कार करते हैं और सुन्दरी आग्रह पूर्वक अधिक वहोरा रही है। मुनि नीची दृष्टि किए हुए खड़े हैं। स्वयं के विकार जन्य कार्यों को देखकर वह मन ही मन मन्थन करता है - ओह ! कहाँ यह महामुनि और कहाँ मैं ? एक नटनी के ऊपर आसक्त होकर मैंने कैसा घृणित मार्ग ग्रहण कर लिया ? माँ-बाप, घर-बार सब कुछ छोड़ दिया। इसी नटनी पर राजा भी मोहित हो रहा है। मैं राजा के दान की राह देख रहा हूँ और राजा मेरे मरने का इन्तजार कर रहा है । यह संसार कैसा स्वार्थी है ? इस विचारधारा में आगे बढ़ते हुए पश्चाताप की अग्नि में सम्पूर्ण कर्मों को जलाकर भस्मिभूत कर देता है । रस्से के ऊपर ही उसे केवलज्ञान प्राप्त होता है । देवगण आकर उसे मुनिवेश प्रदान करते हैं और उसकी धर्मदेशना को सुनकर राजा-रानी और नटनी तीनों ही प्रतिबोध प्राप्त करते हैं। पहले आँख के असंयम के कारण पतन को प्राप्त हुआ और बाद में आँख के संयम के कारण अन्तिम केवलज्ञान तक पहुँच गया। कान का असंयम आँखें किसलिए मिली हैं? जानते हो? भगवान् का मुख देखने के लिये, न कि अभिनेत्रियों का मुख देखने के लिए ! कान भगवान् का भजन सुनने के लिए और संतो की सद्वाणी सुनने के लिये मिले हैं। संतो की वाणी सुनी हो तो कभी भी जीवन में उपयोगी बन सकती है, किन्तु आज के माहौल से तो ऐसा लगता है कि मानो आँख और कान टी.वी. देखने के लिये और अश्लील गीतों को सुनने के लिए ही मिले हों ! इसी में मस्त होते हैं । परन्तु संतो की वाणी सुनकर कानों को पवित्र करना ही कान का आभूषण है।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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