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वाणी का संयम
गुरुवाणी-३ यही साधन कभी-कभी प्राण घातक बन जाते हैं। धन कमाया और सुन्दर फिएट कार खरीदी। घूमने निकले, अचानक ही मृत्यु की गोद में समा गए। इसको पाप का उदय माने या पुण्य का? काया का संयम अर्थात् पाँच इन्द्रियों के ऊपर संयम। एक इन्द्रिय पर भी असंयम अच्छे मानवों को पतन के रास्ते में ढकेल देता है। नरक के मार्ग पर ले जाता है । आँख के असंयम से मनुष्य टी.वी. द्वारा प्रसारित कुत्सित दृश्यों को देखकर अपने जीवन में उतार लेता है और उसका सारा जीवन दुराचारमय बन जाता है। पहले तो आँखों की शर्म के कारण लोक दुष्कृत्य करते हुए रूक जाते थे किन्तु आज तो दुष्कृत्य करके लज्जा के स्थान पर लज्जाहीन/बेशर्म बन जाते हैं। आज तो दुष्कृत्य खुलकर होते हैं और दुष्कृत्य करके लज्जित होने के स्थान पर हर्षित होकर बहादुर पहलवान बनते हैं। पहले के लोग सत्कृत्य करने के बाद भी स्वयं की प्रशंसा सुनकर शर्म करते थे और कहते थे अरे, हमने ऐसा कौनसा बड़ा काम किया है जो आप इस प्रकार प्रशंसा के फूल चढ़ा रहे हैं? हमें लज्जित न करिए। सत्कार्य करने पर भी वे लोग लजालु बने रहते थे जबकि आज का यह वैभव पूर्ण युग इतना गड्ढे में चला गया है कि दुष्कर्म करके भी हमें लज्जा नहीं आती। परस्त्रीलम्पटता और शराब पीना आदि वस्तुएं जो व्यसन रूप मानी जाती थी वह आज अच्छे-अच्छे घरों में फैशन के रूप में बन गई हैं। घर में यदि टी.वी. नहीं हो तो कोई आज लड़की देने को तैयार नहीं होता। धार्मिक वातावरण में पालित-पोषित मनुष्य को आज निर्माल्य
और बेवकूफ माना जाता है। एक भाई मेरे पास आए उन्होंने कहा - साहेब, आज पार्टियों में शराब ही दी जाती है। वे स्वयं अमेरिका में जाकर आए थे। वहाँ से स्वयं के माता-पिता की सेवा करने के लिए ही मुम्बई में आकर बसे थे। वे किसी पार्टी में गये, उनके सन्मुख शराब का प्याला रखा गया। उसने कहा - मैं नहीं पीता। तो सामने वाले व्यक्तियों ने कहा - तुम अमेरिका होकर आए फिर भी सुधरे नहीं? शराब पीना यह