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________________ १५ गुरुवाणी-३ वाणी का संयम भी नहीं। मैं तो अनेक महीनों तक तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा, किन्तु तुम पाठ लेने के लिए नहीं आए और पाठ तो दूर, मिलने के लिए भी नहीं आए। क्या वह मेरा दिया हुआ पाठ तुम्हे अच्छा नहीं लगा? नहीं....नहीं.... ऐसा नहीं है। आपका दिया हुआ पाठ तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा किन्तु अभी तक मैं उसे जीवन में नहीं उतार सका। जब तक जीभ पर संयम नहीं आवेगा तब तक मैं दूसरा पाठ कैसे ले सकता हूँ? २७-२७ वर्षों से मैं इस पाठ को रट रहा हूँ किन्तु अभी तक जैसा चाहिए वैसा अभ्यास नहीं कर सका। प्रत्येक वस्तु के लिए अभ्यास आवश्यक है। हम किसी भी विषय पर अभ्यास नहीं करते हैं। हमारी जहर उगलती हुई वाणी हमारे ज्ञानतन्तु को भी विषमय बना देती है। महाभारत की रचना किस कारण से हुई? तीर जैसे शब्दों से ही तो इसकी रचना हुई है ! केवल द्रोपदी ने यही तो कहा था कि अन्धे का लड़का अन्धा ही होता है न! बस यह छोटे से तीर जैसे वाक्य के कारण ही अनेक तीर आमने-सामने खींचे गये और हजारों आदमी मृत्यु के मुख में पहुँच गये। भयंकर संहार हुआ...! अतः वाणी का संयम बहुत ही आवश्यक है। इस कारण अनेक हिंसाओं से बचा जा सकता है। अब देखते हैं, काया का संयम। काया का संयम निरन्तर भोग विलास में डूबा हुआ आज का मानव काया को संयम में नहीं रख सकता। अच्छे वस्त्र पहनना, अच्छा खाना-पीना, शरीर का श्रृङ्गार करना और घूमना-फिरना बस इसी में ही मस्त रहता है। प्राण हरण करने वाली लक्ष्मी ___कभी-कभी ऐसी लक्ष्मी मिलती है कि वह पाप का कारण बन जाती है । खटाऊ भारत का बहुत बड़ा सेठ गिना जाता था। चार अरब का मालिक था। किन्तु यही सम्पत्ति उसकी मृत्यु का कारण बन गई। भोग विलास के प्रचुर साधन मिल जाने मात्र से उसमें मस्त होने जैसा नहीं है।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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