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________________ गुरुवाणी-३ संयम से युक्त धर्म से वह महात्मा मन ही मन में भयंकर युद्ध क्रीड़ा कर रहे थे। युद्ध करते हुए उनके शस्त्र समाप्त हो गए इस कारण सिर पर धारण किया हुआ सिरस्त्राण लेकर सबका छेदन-भेदन कर दूं। इस प्रकार के भयंकर रौद्रध्यान से युक्त होकर उन्होंने सिरस्त्राण लेने के लिए ज्यों ही सिर पर हाथ लगाया त्यों ही अनुभव किया, अरे ! मैंने तो लुंचन कर रखा है, मैं तो साधु हूँ। उनकी विचारधारा पलट गई, सोचने लगे। अरे, मैं कहाँ हूँ? मैं कौन हूँ? मैंने यह क्या किया? उनके हृदय में भयंकर पश्चाताप की अग्नि दहकने लगी और रौद्रध्यान से जो सातवीं नरक के आयुष्य के योग्य जो कर्मों का जत्था इकट्ठा किया था वो जत्था क्षय होने लगा। वे महात्मा क्षपक श्रेणी पर चढ़े.... एक के बाद एक कर्मों का क्षय करते हुए वे सीधे केवलज्ञान तक पहुँच गये। इस प्रकार पहले मन के असंयम ने राजर्षि को नरक के द्वार तक पहुँचा दिया और तत्काल ही मन के संयम ने राजर्षि को केवलज्ञान प्राप्त करा दिया। मन का संयम अत्यावश्यक है। मन पर अंकुश होगा तो मन का शुद्धिकरण हो सकेगा। मन की शुद्धि के लिए आत्म-निरीक्षण बहुत जरूरी है। इन दिनों विपश्यना की एक साधना निकली है। उसका अर्थ होता है - वि अर्थात् विशेषकर, पश्य अर्थात् देखो। तुम तुम्हारे मन का प्रतिदिन निरीक्षण करोगे तो ध्यान में आएगा कि क्या करने योग्य है? ज्ञानी गुरु और वृद्ध शिष्य __ किसी ज्ञानी गुरु महाराज के पास में उनके वृद्ध शिष्य आकर कहते हैं - भगवन् ! कुछ तत्त्वज्ञान समझाईये, जीवन बीत रहा है, आपके शिक्षण से हम कुछ प्राप्त कर सकें। गुरु महान् विद्वान् हैं । वे कुछ कार्य में व्यस्त थे। उस कार्य को समेट कर वे ध्यानस्त मुद्रा में बैठ गये। शिष्यगण प्रतीक्षा कर रहे थे कि गुरु महाराज कुछ उत्तर देंगे किन्तु गुरु महाराज तो चुपचाप बैठे हैं। शिष्यों में आतुरता बढ़ती गई। वे बोले भगवन्, क्या हमारे प्रश्न से आपको बुरा लगा है? हमारे आने से क्या आपके कार्य में बाधा
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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