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गुरुवाणी - ३
संयम से युक्त धर्म
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श्रेणिक सैन्य सहित भगवान् को वन्दन करने के लिए निकलते हैं। उनके राज सैन्य के आगे चल रहे दो सैनिक आपस में बात कर रहे हैं, एक ने कहा इस राजा को धन्यवाद है, कितनी उग्र तपस्या कर रहे हैं? पूर्ण यौवन में दीक्षा लेकर राज-पाट छोड़ना सहज नहीं है । कैसे सत्वशाली हैं? इस प्रकार प्रशंसा करता है । उसी समय दूसरा व्यक्ति बोलता है अरे ! इस राजा को धिक्कार है, स्वयं के छोटे से बालक को रक्षण दिए बिना ही दीक्षा ले ली। इनको क्या खबर है कि समस्त मन्त्रीगण एक विचार के होकर, इस बालक को मारकर राज्य ग्रहण कर लेंगे। उन दोंनो की उक्त बातचीत राजर्षि ने भी सुनी। शब्द बहुत असरकारक / प्रभावशाली होते हैं। जो मन में आया वह कह दिया। कबीर की एक सूक्ति है
मधुर वचन है औषधि, कटु वचन है तीर । श्रवण द्वार से संचरे, साले सकल शरीर ।
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कबीर कहते हैं कि शब्द एक औषध रूप है, कई लोगों को सांत्वना देता है, कईयों को मृत्यु के मुख से वापस बुला लेता है और कईयों को जीवन दान देने वाला बन जाता है। जबकि कितने ही शब्द मनुष्य के जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं, मौत के मुँह में ढकेल देते हैं। आज हम प्रत्यक्ष में देखते ही हैं न ! शब्दों की मारा-मारी में ही मनुष्य आत्महत्या कर लेता है। ऐसे तीर जैसे शब्द जो कान रूपी द्वार से शरीर में घुसते हैं और सम्पूर्ण शरीर को शल्य के समान व्यथित करते हैं । हम कहते हैं न कि अमुक के उक्त शब्द मेरे दिल को चीर गये। दूसरे सैनिक के उक्त शब्द राजर्षि के कान में तेल के समान फैल गये । उनका क्रोध आसमान को छूने लगा उन्होंने विचार किया कि - अरे ! मन्त्रीगण ऐसे अधम निकले! जिनको मैंने अपना ही समझकर रात-दिन अपने ऐश्वर्य से पोषण किया, क्या वे ही मेरे बालक को मार कर राज्य हड़प करने की इच्छा रखते हैं! वे ऐसे विश्वास घाती निकले .... धिक्कार है। अब तो मैं उनकी अच्छी तरह से खबर लूंगा। मन ही मन में युद्ध करने लगे.... स्वयं