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________________ संयम से युक्त धर्म गुरुवाणी-३ की विचारणा पहले मन में पैदा होती है और उसके बाद ही वह वाणी और काया में प्रवेश करती है। मन पवन के समान कहाँ से कहाँ भटकता रहता है। उसको यदि वश में नहीं किया जाए तो वास्तविक अर्थ में अहिंसा का पालन नहीं होगा। मन शुद्ध होगा तभी अहिंसा का पालन हो सकता है। शास्त्र में तन्दुलिया मत्स्य का प्रसंग आता है। समुद्र में विशालकाय मगरमच्छों के आँख की भौंहों के किनारे चावल जितना तन्दुलिया मत्स्य होता है। समुद्र में जब तेज लहरें आती है तो बड़े मगरमच्छ अपना मुहँ फाड़ देते हैं उस समय लहरों के वेग से खींची हुई अनेक छोटी मछलियों को निगल जाता है, किन्तु उसमें से कुछ मछलियाँ बाहर भी निकल आती है, उस समय आँख के भौंहों के किनारे रहा हुआ वह तन्दुलिया मत्स्य यह विचार करता है कि मैं इसके स्थान पर होता तो एक भी मछली को छिटकने नहीं देता। सभी मछलियों को खा जाता। स्वयं तो बहुत छोटा है, इसीलिए वह न तो खा सकता है और न उनको पकड़ सकता है फिर भी मन में अधम विचार होने से वह सातवीं नरक का आयुष्य बांधता है। व्यर्थ में ही नरक की भयंकर यातनाओं को भोगने वाला बनता है। क्यों? मन पर संयम नहीं रखने के कारण ही तो यह होता है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि शास्त्रों में एक और दृष्टान्त प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का भी आता है। स्वयं के भाई- मुनि वल्कलचीरी की देशना सुनकर वैराग्य को प्राप्त किया और स्वयं के दूध पीते हुए पुत्र को अर्थात् ५ वर्ष के छोटे बालक को राज सिंहासन पर बैठा कर तथा राज्य संचालन का भार मन्त्रियों को सौंप कर दीक्षा लेते हैं। मनुष्य के मन में जब उत्कृष्ट वैराग्य जाग्रत होता है, सच्चा सत्य समझ में आ जाता है, तब वह क्षण मात्र भी संसार में नहीं रह सकता। प्रसन्न चन्द्र राजा दीक्षा लेते हैं। दीक्षा ग्रहण के बाद कठोर तपस्या करते हैं। एक पैर पर खड़े रहकर सूर्य की आतापना लेते हैं। एक समय वे इस प्रकार की आतापना ले रहे थे उसी समय महाराजा
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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