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________________ संयम से युक्त धर्म आसोज वदि २ संयम के भेद भगवान् अरिहंत परमात्मा, हमारा जीवन कैसे मङ्गलमय बने और परलोक भी कैसे सुधरे इसलिए धर्म का मङ्गलमय मार्ग बता रहे हैं। इस लोक में धर्म करोगे तो परलोक में उसका फल मिलेगा ऐसा नहीं परन्तु धर्म तो नकद है। जिस क्षण करोगे उसी क्षण तुम्हें उसका फल मिलेगा। उदाहरण के तौर पर देखिए, हमारे ऊपर किसी ने क्रोध किया उसी समय हम भगवान द्वारा प्ररूपित क्षमा रूपी धर्म का आश्रय लेंगे तो कितना अधिक फायदा होगा? सामने वाले व्यक्ति के साथ वैर भाव का बन्धन नहीं होगा । यदि हम उस समय मौन धारण कर लें तो वह बात उसी समय समाप्त हो जाएगी । आर्त्तध्यान भी नहीं होगा और हमारी दुर्गति भी रूक जाएगी। इस प्रकार धर्म के फल का तात्कालिक अनुभव होगा । धर्म इस लोक में सम्पूर्ण शान्ति और सब प्रकार की समाधि प्रदान करना है किन्तु धर्म अर्थात् क्या? हम पहले यह जान चुके हैं कि धर्म अहिंसा युक्त ही होना चाहिए। साथ ही धर्म का दूसरा स्वरूप है संयम । अहिंसा को सुदृढ़ बनाएंगे तभी संयम को देख सकेंगे। हम संयम की व्याख्या को दीक्षा के रूप में ग्रहण करते हैं। दीक्षा अर्थात् केवल केशलुंचन अथवा वेश बदलने से होता हो ऐसा नहीं है। वह तो केवल आधे घण्टे का कार्य है। संयम का वास्तविक स्वरूप समझना चाहिए । शास्त्रकारों ने संयम के चार भेद बताए हैं:- १. मन का संयम २. वचन का संयम ३. काया का संयम ४. आवश्यकता का संयम । मन चंगा तो कठौती में गंगा सर्वप्रथम मन के संयम का वर्णन करते है । जो मन को वश में नहीं रखते हैं तो अनेक प्रकार के क्लेश पैदा होते है। किसी भी प्रकार के कार्य
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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