________________
गुरुवाणी-३
धर्म कैसा जाइए। किसी ने कुछ नहीं किया है। कीचड़ में डूबे हुए एक सूअर को बाहर निकालते हुए कीचड़ के छींटे वस्त्रों पर लग गये हैं। यह सुनते ही सब लोगों ने तालियों के द्वारा प्रसन्नता व्यक्त की और स्वयं की खुशी जाहिर की। उसी समय लिंकन बोल उठे - भाईयों! मैंने सूअर को नहीं बचाया किन्तु मेरे हृदय में उसकी हालत को देखकर जो वेदना उत्पन्न हुई थी वह मैंने दूर की है। इस प्रकार की सज्जनता ही मनुष्य को उन्नत स्तर पर ले जाती है।
आज अधिकांश मनुष्य दूसरे के उत्कर्ष को देखकर भीतर ही भीतर जलते रहते हैं। मित्रों के उत्कर्ष को मित्र नहीं देख सकता, भाई, भाई के उत्कर्ष को नहीं देख सकता। बाहर से मीठी-मीठी बातें करता है, किन्तु हृदय से सुलगता ही रहता है। ऐसे मनुष्य को धर्म कैसे स्पर्श कर सकता है। ३. करुणा भावना
तीसरी भावना है करुणा भावना :- 'परदुःख विनाशिनी तथा करुणा' अर्थात् करुणा को तीर्थंकर की माता कहा जाता है। आज हमारा चित्त इतना कठोर बन गया है कि उसको करुणा का पानी भी गीला नहीं कर सकता। इसी से कठोर कर्मों का बन्धन होता है और वह कर्मों का बन्धन उदय में आने पर वार, त्यौहार अथवा होली-दीवाली नहीं देखता है। स्वयं के घर में पुत्र का विवाह हो, पिताजी अस्पताल में हों, अचानक ही दुकान पर छापा पड़े, ऐसे अनेक कर्म अचानक ही उदय में आते हैं। इसीलिए ज्ञानी कहते हैं कि - सर्वप्रथम चित्त में करुणा होनी चाहिए। दूसरे के दुःख को देखकर हृदय काँप उठना चाहिए। हमारे पड़ोस में रहरहे पड़ौसी बेचारे दु:ख में आकण्ठ डूबे हुए हों और हम मौज मस्ती मना रहे हो तो विचार करना चाहिए कि हम क्या करें? वह अपने कर्मों से दुःखी हो रहा है, इस प्रकार की विचारधारा मनुष्य को पत्थर दिल का बनाती है। माना कि कदाचित् तुम तन से अथवा धन से कुछ नहीं कर