________________
२३२
परहित-चिन्तक
गुरुवाणी-३ है। आंधी इतनी भयंकर होती है कि आगे का कुछ दिखाई नहीं देता। इस कारण से चारों बहूएं एक वटवृक्ष के नीचे आकर बैठ जाती हैं। इस तरफ ससुरजी भी खेत जाने के लिए घर से निकलते हैं। वे भी आंधी-तूफान के कारण उसी वृक्ष के थड़ के दूसरी तरफ आकर बैठते हैं । वड़ का थड़ बहुत विशाल होता है, इस कारण से एक दूसरे को देख नहीं पाते। जहाँ स्त्रियाँ मिलती हैं, वहाँ वे बोले बिना नहीं रह सकती। चारों औरतें बातों में लग गई हैं । वहाँ बड़ी बहू बोली - इस घर में आकर हमने क्या प्राप्त किया? किसी भी दिन अच्छी साड़ी भी पहनने को नहीं मिली। उसी समय दूसरे नम्बर की बहू बोली - साड़ी की तो बात ठीक है, किन्तु हमने किसी भी दिन तीन रत्ती की एक अंगुठी भी नहीं देखी। इस धन का क्या करेंगे? उसी समय तीसरी बहू बोल उठी - साड़ी तो ठीक है, जैसी-तैसी भी हो वह शरीर ढंकने के काम ही आती है न! और सोना तो कोई रोज पहनने में नहीं आता। वार-त्यौहार ही पहना जाता है, इसीलिए यह नहीं भी हो तो चलता है.... किन्तु मैं तो ऐसा मानती हूँ कि इस घर में आने के बाद मुझे तो किसी भी दिन अच्छा खाने को भी नहीं मिला। रोज बाजरे का अथवा ज्वार का रोटा और छाछ ही मिलती है.... यह भी कोई जीवन है? परिश्रम सबको करने का है पर इच्छानुरूप कुछ भी नहीं मिलता है.... चौथी बहू जो बहुत उन्नत विचारों वाली थी, उसके सन्मुख परलोक था। वह समझती थी कि इस लोक में प्रकाश फैलेगा तो परलोक सुधरेगा। जो इस लोक में जीवन को खाने-पीने में और मौज-मजा में व्यर्थ कर देंगे तो अगले जन्म में क्या होगा? इसलिए उसने कहा - भाभियों! खाना-पीना, पहनना, ओढ़ना यह तो मामूली बात है, क्या इसके पीछे महामूल्यवान जन्म को निष्फल कर दें....? मुझे तो ऐसा लगता है कि ससुरजी के पास इतना धन होने पर भी किसी भी दिन हम दो पैसे का दान भी नहीं कर सकते। परोपकार का कोई भी कार्य नहीं कर सकते। हमारा जीवन कितना निष्फल जा रहा है। थड़ के पीछे बैठा