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________________ २३१ गुरुवाणी-३ परहित-चिन्तक मन में सोच बैठा था, किन्तु पटेल के वह मित्र, जिसके पेट में मेरा अन्न पहुँचा हुआ था, उसने किसी भी जान-पहचान के बिना ही ५०,०००/रुपये मुझे वापिस दिलवाए। उसने पटेल के जमाइयों को यह कहा कि उस भाई के पैसे नहीं रख सकते। क्योंकि मेरे सामने ही उसने धन दिया था वह भी बिना लिखापढ़ी के, किन्तु धन दिया है यह निश्चित है। दो वर्ष के बाद अचानक ही वह भाई धन वापस लौटा गया। किया हुआ कभी भी निष्फल नहीं होता। जगुभाई के स्वयं के शब्द थे - साहेब! मुझे खाने की अपेक्षा खिलाने में बहुत ही आनन्द आता है। इससे जीवन में नम्रता भी आती है। सामने वाला व्यक्ति छोटा हो या बड़ा उसको पास में बिठाकर खिलाने में एक अलग ही आनन्द आता है। ___मोक्ष में जाने वाले अनेक होते हैं, किन्तु तीर्थंकर बनने वाले तो विरले ही होते हैं क्योंकि तीर्थंकर परमात्मा के हृदय में तो केवल परोपकार की ही भावना भरी हुई होती है। इसीलिए वे परार्थ-व्यसनी कहलाते हैं। जिसको व्यसन होगा उसकी पूर्ति के बिना मनुष्य एक घड़ी भी नहीं रह सकता। उसी प्रकार भगवान् को परोपकार के बिना चैन नहीं पड़ता था। जीवन में पुण्य प्राप्त करने की अनेक कुंजियाँ है। दूसरे का भला करने की भावना ही मनुष्य को ऊँचाई पर ले जाती है। कर भला होगा भला, कर बुरा होगा बुरा। प्रकृति का यह सनातन सत्य है कि भला करने के विचारों से जगत् में रहे हुए शुभ परमाणु के पुद्गल स्वतः ही आकर्षित होकर आते हैं। बिना पुरुषार्थ ही पुण्य का बल एकत्रित हो जाता है और मनुष्य को शिखर पर पहुँचा देता है। विचारों का चमत्कार...! एक नगर में एक बड़ा जागीरदार रहता था। उसके चार पुत्र थे। चारों का विवाह हो चुका था। सब प्रेम के साथ रहते थे। पुत्र खेती संभालते थे और बहूएं भी खेती के काम में मदद करती थी। एक बार चारों बहूएं खाना लेकर खेत में जा रही थी। मार्ग में एकदम आंधी आती
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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